राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

एआई नहीं, सिस्टम है समस्या

अब जबकि एआई एक प्रचलित तकनीक के रूप में हमारे सामने है, तो उसको दो मॉडल- दो स्टैंडर्ड भी हमारे समक्ष उपस्थित हैँ। औद्योगिक क्रांति होने के बाद यह पहला मौका है, जब ऐसा हुआ है। औद्योगिक क्रांतियों के पिछले हर दौर में जब भी कोई नई तकनीक उभरी, उसके प्रतिमान पश्चिमी देशों ने तय किए। लेकिन औद्योगिक क्रांति के चौथे दौर की तकनीक में ग्लोबल साउथ के एक देश ने ना सिर्फ समानांतर प्रगति की है, बल्कि उनके समानांतर प्रतिमान दुनिया के सामने रखे हैं।

सत्येंद्र रंजन

आम धारणा है कि दुनिया औद्योगिक क्रांति के चौथे दौर में प्रवेश कर गई है। इस कारण आने वाले वर्षों में उत्पादन, व्यापार, एवं समाजों के आर्थिक संगठन में बड़े उलटफेर होंगे। इस दौर की खास पहचान जिस तकनीक से की जा रही है, वो एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस हैं।

भारत जैसे समाजों में एआई शब्द उम्मीद से ज्यादा आशंकाएं पैदा कर रहा है। जबकि हकीकत यह है कि एआई सिर्फ एक तकनीक है, जो खुद समाज के कार्य-व्यवहार का निर्धारण नहीं कर सकता। हर तकनीक की तरह इसका उपयोग भी बिल्कुल समाज के साझा विवेक एवं नियोजन क्षमता पर निर्भर करता है। अतः कहा जा सकता है कि एआई को लेकर फैला भय एक तरह का भ्रम है, जो नासमझी से पैदा हुआ है।

वैसे भ्रम तो खुद एआई की समझ लेकर भी है। एआई की कोई आम-सहमत परिभाषा अभी मौजूद नहीं है। लार्ज लैंग्वेज मॉडल्स (एलएलएम), रॉबोटिक्स, ऑटोमेशन आदि जैसी अनेक क्रियाओं या तकनीकों को आज एआई शब्द के जरिए व्यक्त किया जा रहा है। इस ओर इस विषय के जानकारों ने ध्यान खींचा है कि आम चर्चाओं के दौरान एआई शब्द का उपयोग conceptual umbrella के रूप में अधिक हो रहा है, बजाय किसी ठोस परिभाषा के।

(https://www.youtube.com/watch?v=8enXRDlWguU)

वैसे इस शब्द को परिभाषित के प्रयास भी हुए हैँ। ऑक्सफॉर्ड डिक्शनरी के मुताबिक, ‘एआई कंप्यूटर प्रणालियों के विकास की वो अवस्था है, जब वे वो कार्य करने लगती हैं, जिन्हें करने के लिए आम तौर पर मानव बुद्धि की जरूरत पड़ती है।’ यूरोपियन कमीशन के मुताबिक, ‘एआई वे (कंप्यूटर) सिस्टम हैं, जो अपने वातावरण का विश्लेषण करते हुए और उनके मुताबिक कार्य संपादित करते हुए मेधावी (intelligent) व्यवहार करने लगते हैं। तय लक्ष्यों को हासिल करने के क्रम में ये सिस्टम एक हद तक स्वायत्त ढंग से काम करते हैं।’ कुछ स्रोतों के मुताबिक एआई शब्द का ईज़ाद अमेरिकी गणितज्ञ एवं कंप्यूटर वैज्ञानिक जॉन मैकार्थी ने 1956 में किया था। उन्होंने मुताबिक एआई मेधावी (intelligent) मशीनें तैयार करने का विज्ञान एवं इंजीनियरिंग है।

कहा जा सकता है कि आज ऐसी मशीनों का दौर आ चुका है। इस हद तक ये मशीनें या एप्लीकेशन ही औद्योगिक क्रांति के नए दौर का स्वरूप तय कर रही हैं। औद्योगिक क्रांति के पहले दौर से दुनिया 18वीं सदी के आखिरी और 19वीं सदी के आरंभिक दशकों में गुजरी थी। इस दौर में जल और भाप ऊर्जा का प्रमुख स्रोत बने, जिससे मशीन के जरिए उत्पादन की शुरुआत हुई।

दूसरा दौर 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से शुरू हो कर 20वीं सदी के आरंभिक दशकों तक चला। इस दौर में ऊर्जा के स्रोत के रूप में बिजली का व्यापक रूप से उपयोग शुरू हुआ, जिससे कम लागत में बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव हुआ। इस दौर में टेलीग्राफ के जरिए संचार और रेलवे के जरिए परिवहन का प्रचलन शुरू हुआ। तीसरा दौर 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में आया, जिसकी पहचान बड़े पैमाने पर कंप्यूटरों का इस्तेमाल, इंटरनेट, शुरुआती रॉबोट्स, और डिजिटल तकनीक आधारित ऑटोमेशन (स्वचालन) हैं। इन तकनीकों ने ही भूमंडलीकरण को संभव बनाया।

अब 21वीं सदी में औद्योगिक क्रांति का चौथा चरण आया है। इस दौर में साइबर और भौतिक दुनिया का मेल हो रहा है। सौर, पवन, आदि के जरिए प्राप्त हरित ऊर्जा इस दौर की खास पहचान बने हैं। एआई, इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT), उन्नत रॉबोटिक्स, ऑटोनोमस निर्णय प्रक्रिया आदि इस दौर की पहचान बनने जा रहे हैँ।

इस रूप में एआई लंबे विकास क्रम में उभरी तकनीक है। यह कोई अचानक हो गई खोज नहीं है। मगर अब जाकर यह चर्चा में आई है, तो उसका कारण इसके बढ़ता उपयोग और उसके हो रहे प्रभाव हैं। असल में, 2023 के अंत में अमेरिकी कंपनी ओपन आई के चैटजीपीटी लॉन्च करने के साथ एआई की चर्चा को जितना बल मिला, उतना उसके पहले नहीं हुआ था। विशेषज्ञों के मुताबिक चैटजीपीटी (और उसके बाद जारी हुए जेमिनी, क्लाउड, परप्लेक्सिटी, ग्रोक, मेटा एआई, डीपसीक, किमी, जेडएआई, मैनस आदि) तकनीकी रूप से एलएलएम हैं, ना कि संपूर्ण एआई। एलएलएम एक ऐसा मॉडल है, जो भाषा को समझने, उत्पन्न करने, और विश्लेषण करने में सक्षम हो।

इसलिए यह ध्यान में रखना चाहिए कि एआई एक व्यापक conceptual umbrella है और एलएलएम उसका सिर्फ एक हिस्सा है। बीते डेढ़ साल में प्रचलित एलएलएम बहुत से वैसे कार्य करने में सक्षम हैं, जिन्हें अब तक ‘ह्वाइट कॉलर’ कर्मचारी करते रहे हैं- यानी ऐसे कर्मचारी, जिनके काम में मानसिक श्रम की जरूरत पड़ती है। ओटोमेशन के आरंभिक चरणों में ऐसी बहुत-सी मशीनों का उपयोग प्रचलित हुआ, जिनकी वजह से शारीरिक श्रम करने वाले- यानी जिन्हें ‘ब्लू कॉलर’ कर्मचारियों का रोजगार खत्म हुआ। आशंका जताई जा रही है कि अब वही स्थिति ‘ह्वाइट कॉलर’ कर्मियों की हो सकती है। और यही वजह है कि एआई को लेकर आज आशंकाएं फैली हुई हैं।

बहरहाल, क्या ऐसा विस्थापन अनिवार्य है? क्या एआई तकनीक के कारण लाखों लोगों की जिंदगी में उथलपुथल अपरिहार्य है? अथवा, क्या यह भी संभव है कि एआई को अभिशाप के बजाय वरदान बनाया जा सके? आईए, इन सवालों की पड़ताल करते हैं।

जुलाई के आखिरी हफ्ते में चीन के शहर शंघाई में विश्व आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कॉन्फ्रेंस आयोजित हुई। इस सम्मेलन में वैश्विक एआई संचालन कार्ययोजना (Global AI Governance Action Plan) जारी की गई। इस दस्तावेज के आरंभ में कहा गया है- ‘एआई मानव विकास का एक नया फ्रंटियर है। यह जारी वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्रांति की एक प्रमुख संचालक शक्ति है। साथ ही यह औद्योगिक रूपांतरण एवं मानवता के लिए लाभदायक अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक हित को आगे बढ़ा रही तकनीक भी है। एआई विकास के लिए अभूतपूर्व अवसर लेकर आया है, लेकिन इसके साथ अभूतपूर्व जोखिम और चुनौतियां भी सामने आई हैं।’

दस्तावेज में कहा गया- ‘एआई युग में वैश्विक एकजुटता से हम सुरक्षा, विश्वसनीयता, नियंत्रण क्षमता और निष्पक्षता कायम रखते हुए एआई की संभावनाओं को खोल सकते हैं।’(https://www.newswire.lk/2025/07/31/13-point-global-ai-governance-action-plan-published/)

स्पष्टतः इन वाक्यों में सतर्कता है, लेकिन आशंका या भय नहीं है। क्यों? इसकी वजह वो स्थल है, जहां ये सम्मेलन हुआ। गौरतलब है कि आज दुनिया एआई और अन्य हाई टेक के मामलों में दो खेमों में बंटती जा रही है। इन खेमों का नेतृत्व अमेरिका और चीन कर रहे हैं। एआई के बारे में इन दोनों का अलग नजरिया सामने आया है। इन तकनीक के विकास एवं उपयोग के उनके दो अलग प्रतिमान (standard) अस्तित्व में आए हैं। इसलिए अक्सर एआई, रोबोटिक्स, क्वांटम कंप्यूंटिंग आदि की बात होती है, तो यह मायने रखता है कि उसका संदर्भ कौन-सी जगह और कौन-सा प्रतिमान है।

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ने कुछ वर्ष पहले Little to Lose: Exit Options and Attitudes towards Automation in Chinese Manufacturing शीर्षक से एक शोध पत्र प्रकाशित किया था। इसमें कहा गया कि चीनी श्रमिकों पर टेक्नोलॉजी का प्रभाव अब तक मिला-जुला रहा है। अक्सर यह अन्य देशों के अनुभव के उलट रहा है।

(https://www.cambridge.org/core/journals/china-quarterly/article/little-to-lose-exit-options-and-attitudes-towards-automation-in-chinese-manufacturing/C5AF4756FB1EAE34BB728B90C5B36959?utm_source=SFMC&utm_medium=email&utm_content=Article&utm_campaign=New%20Cambridge%20Alert%20-%20Articles&WT।mc_id=New%20Cambridge%20Alert%20-%20Articles)।

इस अध्ययन से जुड़े दो शोधकर्ताओं में से एक सुन झोंगवेई ने हाल में एक इंटरव्यू में कहा- ‘हमारा डेटा इस कथन की पुष्टि करता है कि चीन में श्रमिक ओटोमेशन को लेकर चिंतित नहीं है। उनमें से 90 फीसदी इस बात की चिंता से ग्रस्त नहीं हैं कि ओटोमेशन हुआ, तो उनका क्या होगा। वे यह चिंता जताते नहीं मिलते कि रॉबोट्स उनकी नौकरी खा रहे हैं। कुल मिला कर इसे वे कोई महत्त्वपूर्ण समस्या नहीं मानते।’

(https://www.fredgao.com/p/a-silent-handover-how-automation)

अध्ययनों के मुताबिक इसका कारण वहां ओटोमेशन को योजनाबद्ध ढंग से लागू किया जाना है। आम समझ है कि जिन कार्यों में कोई रचनात्मकता नहीं होती, उन्हें आम कर्मचारी सिर्फ रोजी-रोटी की मजबूरी में करते हैं। वैसे ऊबाऊ कार्यों में लगे कर्मचारियों को उचित ट्रेनिंग देकर उनका नए काम में पुनर्वास की व्यवस्था हो और साथ ही सामाजिक सुरक्षा का मजबूत तंत्र हो, तो एआई युग का ठीक वैसा ही अलग तजुर्बा हो सकता है, जैसा सोशलिस्ट/ कम्युनिस्ट देशों में आरंभिक ओटोमेशन के दौरान देखने को मिला था।

उस स्थिति में यह तकनीक भी एक बेहतर मानवीय समाज बनाने में सहायक बनी नजर आ सकती है। आधुनिक तकनीक की उन्नति के साथ चीन में एक सबसे अलग किस्म का प्रयोग हुआ है। यही कारण है कि वहां एआई को चुनौती से अधिक एक नए अवसर के रूप में भी देखा जा रहा है। चीन ने एआई के जो प्रतिमान पेश किए हैं, वह उसकी इसी प्रयोग से उपजी समझ पर आधारित है।

अमेरिकी शासक वर्ग की प्रमुख पत्रिका ‘फॉरेन अफेयर्स’ में हाल में छपे एक लेख में कहा गया- ‘किस देश का एआई मॉडल दुनिया में प्रमुख बन कर उभरेगा, इसका संबंध सिर्फ बाजार की प्रतिस्पर्धा या सैन्य एप्लीकेशन्स से नहीं है, बल्कि इसके नीतिगत परिणाम होंगे। ऑपेन (सोर्स) मॉडल दुनिया भर के यूजर्स को अपनी स्थानीय जरूरतों के मुताबिक एआई सिस्टम विकसित करने का अवसर देते हैं। वे देश अपने लिए स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, और श्रम-शक्ति के लिए कम लागत में एआई सिस्टम तैयार कर सकते हैं। इस रूप में ओपेन मॉडल चीन को जो सबसे बड़ा लाभ पहुंचा रहे हैं, वह संभवतः सॉफ्ट पॉवर के क्षेत्र में है।’

(https://www.foreignaffairs.com/united-states/chinas-overlooked-ai-strategy)

दरअसल, वैश्विक स्तर पर अमेरिकी और चीनी मॉडल्स के बीच जो सबसे प्रमुख अंतर हैं, उनमें एआई एप्लीकेशन्स के सोर्स का ही है। अमेरिकी एआई एप्लीकेशन क्लोज्ड सोर्स मॉडल वाले हैं, जबकि चीन ने ओपेन सोर्स मॉडल पेश किए हैँ। इसका अर्थ यह है कि अमेरिकी एप्लीकेशन को कैसे तैयार किया गया है और वे कैसे काम करते हैं, इसे तैयार करने वाली कंपनी के अलावा कोई और नहीं जान सकता। यह संबंधित कंपनी की बौद्धिक संपदा हो जाती है। जबकि चीनी कंपनियां अपने एप्लीकेशन्स को खुले सोर्स में डाल रही हैं, जिन्हें कोई भी देख सकता है। कोई भी उससे सीखते हुए और उसमें हेरफेर करते हुए अपनी जरूरत के मुताबिक एप्लीकेशन तैयार कर सकता है।

गौरतलब है कि चीन में अक्सर एआई की चर्चा वहां रोजमर्रा की जिंदगी में हो रहे इसके इस्तेमाल को लेकर होती है। लेकिन जब अमेरिका में एआई की बात आते ही अति-उन्नत चिप, विशाल डेटा सेंटर, उन डेटा सेंटर्स को चलाने के लिए जरूरी विशाल पैमाने पर बिजली और शुद्ध जल की मांग आदि की चर्चा में सामने आ जाती हैं। इन सबके लिए अरबों डॉलर के बजट की बात होने लगती है। बात घूम-फिर कर शेयर बाजार पर केंद्रित हो जाती है। आज एआई से जुड़ी हाई टेक कंपनियों का मूल्य अमेरिकी शेयर बाजार में 35 फीसदी तक पहुंच गया है। अनेक अर्थशास्त्री इसे bubble economy बता रहे हैं और आशंका जता रहे हैं कि जैसे साल 2000 में डॉट कॉम bubble फूटा था, वैसा ही अब एआई bubble के साथ हो सकता है।

(https://thenextrecession.wordpress।com/2025/07/27/ai-bubbling-up/)

एआई की इस अर्थव्यवस्था की झलक इस नई तकनीक से संबंधित अमेरिका के आम नजरिए में देखने को मिलती है। चूंकि यहां प्रेरक तत्व मुनाफा है, जिस पर गिनी-चुनी कंपनियां अपना एकाधिकार रखना चाहती हैं, तो एआई के जरिए आम जिंदगी को आसान बनाने की सोच वहां गायब है। एआई को रहस्य बनाए रख कर इसके जरिए मोनोपॉली को और शक्ति देने का नजरिया वहां हावी है। डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन की एआई कार्ययोजना भी इसी सोच से प्रेरित है। गुजरे 23 जुलाई को ह्वाइट हाउस ने इस कार्ययोजना का दस्तावेज जारी किया। इसका शीर्षक ही इसके सार-तत्व का आभास करा देता है। कार्ययोजना REMOVING BARRIERS TO AMERICAN LEADERSHIP IN ARTIFICIAL INTELLIGENCE शीर्षक से जारी हुई है।

(https://www.whitehouse.gov/presidential-actions/2025/01/removing-barriers-to-american-leadership-in-artificial-intelligence/)

नाम से जाहिर है कि ट्रंप प्रशासन का मकसद आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के क्षेत्र में अमेरिकी लीडरशिप के रास्ते की रुकावटों को दूर करना है। यानी अमेरिका मान कर चलता है कि उसका नेतृत्व रहना चाहिए और इस रास्ते में जो भी रुकावटें हों, उन्हें दूर किया जाना चाहिए। स्पष्टतः इस नजरिए में टकराव की मंशा शामिल है। बहरहाल, ये कार्ययोजना काफी देर से आई है। चीन का ओपेन सोर्स मॉडल ऐसी रुकावट बन कर इसके रास्ते में खड़े हो चुके हैं, जिन्हें ग्लोबल साउथ के देशों में भारी लोकप्रियता हासिल हो रही है।

खुद फॉरेन अफेयर्स के आलेख में कहा गया है- ‘एआई के फायदों को व्यापक रूप से साझा कर चीन के ओपेन मॉडल अंतरराष्ट्रीय सद्भावना हासिल कर सकते हैं। ये चीन को अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और मध्य पूर्व सहित पूरी विकासशील दुनिया में एआई का लाभ पहुंचाने वाले देश के रूप में स्थापित कर सकते हैं।’

कहने का तात्पर्य यह कि अब जबकि एआई एक प्रचलित तकनीक के रूप में हमारे सामने है, तो उसको दो मॉडल- दो स्टैंडर्ड भी हमारे समक्ष उपस्थित हैँ। औद्योगिक क्रांति होने के बाद यह पहला मौका है, जब ऐसा हुआ है। औद्योगिक क्रांतियों के पिछले हर दौर में जब भी कोई नई तकनीक उभरी, उसके प्रतिमान पश्चिमी देशों ने तय किए। लेकिन औद्योगिक क्रांति के चौथे दौर की तकनीक में ग्लोबल साउथ के एक देश ने ना सिर्फ समानांतर प्रगति की है, बल्कि उनके समानांतर प्रतिमान दुनिया के सामने रखे हैं।

यही वो संदर्भ है, जिसमें अमेरिका को अपने नेतृत्व या वर्चस्व के आगे रुकावटें नजर आ रही हैं। जबकि दूसरा नजरिया साझेपन का है, जिसमें मानव मेधा की उपलब्धियों को सबके साथ बांटने की भावना काम कर रही नजर आती है। जड़ में जाकर देखा जाए, तो यह फर्क पूंजी से पूंजी बनाने बनाम मानव समाज के हितों को सबसे ऊपर रखने के बीच का है। यानी यह पूंजीवाद बनाम समाजवाद का फर्क है, भले वो समाजवाद अपूर्ण एवं एक देश विशेष की परिस्थितियों में यथासंभव हुए प्रयोगों पर आधारित हो।

By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *