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12-05-2025 Vol 19

न्यायपालिका पर फिजूल की बहस

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यदि विधायिका संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करती है, तो न्यायपालिका उसे निरस्त कर सकती है, जैसा कि केशवानंद भारतीमामले में स्थापित किया गया था। इस प्रकार न्यायपालिका संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित करती है। संविधान के अनुसार न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में स्वतंत्रता के साथ कार्य करना चाहिए और एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

भारत के संविधान में न्यायपालिका और विधायिका को विशेष अधिकार और शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, जो उनके बीच संतुलन और नियंत्रण बनाए रखने के लिए ज़रूरी हैं। ये दोनों संस्थाएं संविधान के तहत अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र और समान रूप से कार्य करती हैं, लेकिन साथ ही एक-दूसरे की शक्तियों पर भी नियंत्रण  रखती हैं। पर हाल ही में भाजपा सांसद निशिकांत दुबे द्वारा भारतीय न्यायपालिका, विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ की गई तीखी टिप्पणियों ने देश में एक नई संवैधानिक बहस को जन्म दिया है।

दुबे ने न्यायपालिका पर “अराजकता” और “धार्मिक युद्ध” भड़काने का आरोप लगाया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट अपनी संवैधानिक सीमाओं से आगे बढ़ रहा है, जिससे संसद और विधानसभाओं की भूमिका गौण हो गई है। दुबे की इन टिप्पणियों पर विपक्ष ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है और अवमानना की कार्यवाही की मांग की है। वहीं भाजपा ने खुद को इन टिप्पणियों से दूर कर लिया है। विपक्षी दलों की नज़र में मौजूदा विवाद एक सोची-समझी रणनीति के तहत जनता का ध्यान वक़्फ़ विधेयक से उत्पन्न असहज परिस्थिति से भटकाने के लिए किया गया है।

इस विवाद ने न्यायपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के संतुलन, संविधान में उनके अधिकारों और सीमाओं पर पुरानी बहस को फिर से प्रासंगिक बना दिया है।

न्यायपालिका-विधायिका में तनाव

भारतीय न्यायपालिका एक एकीकृत प्रणाली है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है, उसके नीचे उच्च न्यायालय और फिर जिला एवं सत्र न्यायालय आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय संविधान का संरक्षक है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का ‘गारंटर’ भी है। सर्वोच्च न्यायालय के पास मूल अधिकार क्षेत्र होता है, जिसमें वह केंद्र और राज्यों के बीच विवादों का निपटारा करता है। इसके अलावा, यह अपीलीय और सलाहकार अधिकार भी रखता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए व्यापक अधिकार प्राप्त हैं। यह संविधान के सर्वोच्च कानून के रूप में पालन को सुनिश्चित करता है।

यदि कार्यपालिका व विधायिका संविधान का उल्लंघन करते हैं तो उनके कार्यों को असंवैधानिक घोषित भी कर सकता है। न्यायपालिका विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा करती है और अनुच्छेद 13 के तहत असंवैधानिक पाए गए कानूनों को अमान्य भी कर सकती है। यह विधायिका की शक्तियों पर एक महत्वपूर्ण नियंत्रण है।

‘कॉलेजियम’ प्रणाली के माध्यम से न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है। हालांकि न्यायाधीशों पर महाभियोग लगाकर उन्हें हटाने का प्रावधान भी है, जिससे न्यायपालिका की जवाबदेही बनी रहती है। अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय ‘पूर्ण न्याय’ के लिए आदेश जारी कर सकता है, जिससे उसे कुछ कार्यकारी कार्यों को संचालित करने की अनुमति मिलती है, खासकर जब कार्यपालिका विफल होती है।

वहीं विधायिका का मुख्य कार्य कानून बनाना है। यह संसद (लोकसभा और राज्यसभा) और राज्य विधानसभाओं के रूप में कार्य करती है। विधायिका के पास कानून बनाने, संशोधित करने और रद्द करने का अधिकार है। यदि न्यायपालिका किसी कानून को असंवैधानिक घोषित कर देती है, तो विधायिका उस कानून को संविधान के अनुरूप संशोधित कर पुनः वैध बना सकती है। विधायिका के सदस्यों को भाषण और मतदान की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद ्ट्रपति या न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग चलाने का अधिकार भी है, जो संवैधानिक उल्लंघनों के लिए एक नियंत्रण तंत्र है।

विधायिका कार्यपालिका को सलाह देती है और उसके कार्यों की निगरानी करती है। कार्यपालिका के पास अध्यादेश जारी करने का अधिकार होता है, जिससे आपातकालीन स्थितियों में विधायिका को दरकिनार किया जा सकता है। भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से शक्ति विभाजन का उल्लेख नहीं है, लेकिन कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच कार्यों का स्पष्ट विभाजन है। अनुच्छेद 50 के तहत न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए कदम उठाए गए हैं।

अनुच्छेद 121 और 211 विधायिका को न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा करने से रोकते हैं, और अनुच्छेद 122 और 212 न्यायपालिका को विधायिका की कार्यवाही पर निर्णय लेने से रोकते हैं। इससे दोनों के बीच संतुलन बना रहता है। यदि विधायिका संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करती है, तो न्यायपालिका उसे निरस्त कर सकती है, जैसा कि ‘केशवानंद भारती’ मामले में स्थापित किया गया था। इस प्रकार न्यायपालिका संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित करती है। संविधान के अनुसार न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में स्वतंत्रता के साथ कार्य करना चाहिए और एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यह संतुलन लोकतंत्र के स्वस्थ संचालन के लिए आवश्यक है।

सांसद निशिकांत दुबे की टिप्पणियाँ न्यायपालिका की भूमिका और शक्तियों को चुनौती देने वाली हैं जो भारतीय संविधान में शक्तियों के विभाजन और ‘चेक्स एंड बैलेंस’ की व्यवस्था पर ग़लत असर डालती हैं। यह सही है कि न्यायपालिका का कार्य केवल कानून की व्याख्या और संविधान की रक्षा करना है, न कि विधायिका की भूमिका का अतिक्रमण करना। पर मौजूदा विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह कोई अतिक्रमण नहीं किया है।

किसी भी नए क़ानून की व्याख्या करना और उसकी संवैधानिक स्वीकारिता को परखना अदालत का दायित्व है, जो उसने वक़्फ़ क़ानून के मामले में या पहले भी अनेक बार किया है। इसलिए निशिकांत दुबे के बयान ने एक संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया है। इस स्थिति से सत्तारूढ़ दल और न्यायपालिका को अविलंब निपटना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी स्थिति दोबारा उत्पन्न न हो।

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Pic Credit: ANI

रजनीश कपूर

दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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