दुनिया रूढिवाद के सैलाब में डूब-उतरा रही है। मध्यमार्गी ‘बेचारे’ हो चले हैं। वे मध्य-दक्षिणपंथियों और लोकलुभावनवादी दक्षिणपंथियों से पिट रहे हैं। जर्मनी इस सैलाब का सबसे नया शिकार है। वहां की मध्य-दक्षिणपंथी क्रिस्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन पार्टी (सीडीयू) के नेता फ्रीड्रेक मर्त्ज़ का देश का अगला चांसलर बनना तय है। हालांकि मतदाताओं का दक्षिणपंथियों की ओर झुकाव अनुमानों से कम है, फिर भी यह जबरदस्त है। रूढिवादियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संकल्प लिया था कि उनसे अधिक दक्षिणपंथी कोई भी दल चुनावों में कामयाबी हासिल नहीं कर सकेगा। अब यह साफ है कि वे अपने संकल्प को पूरा करने में नाकामयाब रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर रूढिवादी सीडीयू/सीएसयू ने अधिकतर सीटों पर जीत हासिल की है। और अति-दक्षिणपंथी एएफडी दूसरे स्थान पर रही है।
लेकिन जर्मनी के ये नतीजे न तो आश्चर्यजनक है और ना ही धक्का पहुंचाने वाले हैं।
सारी दुनिया में निराशा, मोहभंग और सार्वभौम मूल्यों के प्रति बगावत का माहौल है। इससे उग्र-दक्षिणपंथी और व्यवस्था-विरोधी दलों की ताकत में इजाफा हुआ है। स्थापित राजनीति को लेकर निराशा और मायूसी है, विशेषकर युवाओं में। अध्ययनों और रायशुमारियों में दावा किया गया है कि युवा आजादी (अर्थात उदारवाद) की बजाए अंकुशों (यानि रूढिवादिता) के अधिक पक्षधर हैं। अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्था ग्लोकेलाईटिस द्वारा 2024 में किए गए अध्ययन से पता लगता है कि 2014 से 2023 के बीच, कुल मिलाकर दुनिया अधिक उदारवादी बनी। हालांकि वह इसके साथ-साथ अधिक निराशावादी भी हो गई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि सभी महाद्वीपों में उग्र-दक्षिणपंथी मतदाताओं की छवि बदल रही है, और अति दक्षिणपंथ के प्रति समर्थन युवावर्ग में सबसे तेजी से बढ़ रहा है।
इसकी वजह तो साफ़ है, हालांकि इसे समझना आसान नहीं है। उनकी सोच में ढेर सारी कमियां है, पाखंड है क्योंकि उनकी कोई विचारधारा ही नहीं है। युवा पंथनिरपेक्ष नजर आना चाहते हैं, और यह नहीं चाहते कि उन पर जेनोफोबिक (विदेशियों से नफरत करना वाला) होने का ठप्पा लगा दिया जाए। लेकिन वे प्रवासियों के खिलाफ हैं, और भारत के मामले में मुसलमानों और उनकी संस्कृति के। वे महसूस करते हैं कि पुराने राजनैतिक दल मुसलमानों के अधिक पक्षधर रहे हैं। जिन नौकरियों और घरों पर उनका हक था, वे अल्पसंख्यकों को दे दी गईं और उन्हें तकलीफ झेलने के लिए छोड़ दिया गया। वे महसूस करते हैं कि उनकी ओर से मुंह फेर लिया गया है, उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है। इसलिए उन्हें उनकी भावनाओं के अनुकूल बातों और प्रोपेगेंडा से राहत महसूस होती है। उन्हें लगता है कि वे सही सोच रहे हैं। उनकी नजरों में दक्षिणपंथी ही ठीक बात कर रहे हैं।
दक्षिणपंथ की ओर आए इस झुकाव ने लोकतंत्र के प्रति आस्था को और धक्का पहुंचाया है। केब्रिज के शोधकर्ताओं द्वारा 2020 में 160 देशों के लोगों के रवैयों का अध्ययन किया गया। अध्ययन में यह पाया गया कि युवा पीढ़ी का लोकतंत्र से अधिकाधिक मोहभंग होता जा रहा है। और पीयू रिसर्च सेंटर के मुताबिक 12 उच्च आय वाले देशों के करीब दो-तिहाई नागरिक लोकतंत्र से असंतुष्ट थे। यह अनुपात 2017 में आधे से भी कम था।
आखिर क्या बदल गया है?
तेजी से बदलते समय ने पुरानी यादों को धुंधला कर दिया है। 1930 के दशक के फासीवाद, जिसके चलते व्यापक नरसंहार वाला विनाशकारी युद्ध हुआ था, को दुनिया भूल चली है। तानाशाही और अति-दक्षिणपंथी अतिवाद अब पहले जितना कलंकित नहीं रहा। 1970 के दशक में ट्रंप, मिलोनी, और मोदी जैसे नेताओं को हिटलर और मुसोलनी का अवतार समझा जाता। लोग उनसे डरते, उनसे नफरत करते। लेकिन अब अधिनायकवादी लोगों की तानाशाही का भय नहीं है, बल्कि अब अल्पसंख्यकों, मुसलमानों को अधिकार और शक्ति दिए जाने के प्रति डर है। देश की सीमाओं के बाहर से आने वालों के प्रति भय है।
समय बदलता रहता है। एक समय ‘स्टेटसमैनों’ का था। जब विविधता, समानता, समावेशिता, पूंजीवाद और आजादी के मूल्यों का बोलबाला था। यह वह दौर भी था जिसमें रूढ़िवादी विचारों को खारिज किया जाता था। बहुसंख्यक वर्ग महसूस करता था कि उसे दूसरों से अधिक हक़ नहीं होने चाहिए। आज राजनैतिक माहौल बदल रहा है। दक्षिणपंथ की ओर झुकाव में जनता खुद को महफूज़ महसूस करती है। क्या दक्षिणपंथ की ओर इस झुकाव को इस बात का संकेत माना जा सकता है कि वैश्विक राजनीति में तरक्कीपसंदगी का दौर खत्म हो गया है? अभी तो ऐसा ही लग रहा है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)