बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान यह चर्चा हो रही थी कि राहुल गांधी को किसी ने समझाया है कि प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस का वोट बैंक छीन कर मजबूत हुई हैं और जब तक वो पार्टियां समाप्त नहीं होंगी तब तक कांग्रेस का भला नहीं हो सकता है और इस वजह से राहुल गांधी राजद को हरवाने की राजनीति कर रहे हैं। तब यह एक साजिश थ्योरी की तरह लगता था। लगता था कि कोई भी नेता ऐसे कैसे सोच सकता है। लेकिन अब लग रहा है कि सचमुच कांग्रेस को हिंदी पट्टी के राज्यों में अकेले राजनीति करनी है और इसकी शुरुआत वह बिहार से करना चाह रही है। चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस ने अकेले चलने का फैसला किया है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस बिहार में अपना संगठन मजबूत करेगी और राजद को मुद्दा आधारित समर्थन देगी। इसका एक संकेत महागठबंधन के विधायकों की बैठक में कांग्रेस ने दिया।
कांग्रेस पार्टी ने महागठबंधन के विधायकों की बैठक में अपने छह विधायकों को नहीं भेजा। कांग्रेस की ओर से समीर सिंह गए, जो विधान परिषद के सदस्य हैं। उन्होंने इस बात पर हामी भरी कि तेजस्वी यादव को महागठबंधन विधायक दल का नेता बनाया जाए। हालांकि कांग्रेस विधायकों के नहीं पहुंचने से राजद में नाराजगी हुई, जिसका इजहार उसके प्रदेश अध्यक्ष मंगनी लाल मंडल ने किया। मंगनी लाल मंडल ने कहा कि कांग्रेस अगर अकेले चलना चाह रही है तो वह जाए, राजद को कोई समस्या नहीं है। सो, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस कैसे अकेले चलती है। 15 साल पहले 2009 में वह अकेले चली थी। तब उसके पास लालू विरोध के चेहरे के तौर पर अनिल शर्मा अध्यक्ष थे। अभी कांग्रेस के पास कोई चेहरा नहीं है। चुनाव से पहले अध्यक्ष बनाए गए राजेश राम की बिहार में कोई पहचान नहीं है। उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा भी दे दिया। दूसरी ओर प्रभारी कृष्णा अल्लावरू पूरी तरह से फेल हो चुके हैं। अब देखना है कि कांग्रेस नया अध्यक्ष और प्रभारी लाती है या इन्हीं से काम चलाती है।


