जम्मू कश्मीर के पहलगाम में बेकसूर सैसानियों पर 22 अप्रैल को हुए आतंकवादी हमले के बाद जैसी एकजुटता देश में दिखी थी और जैसा संकल्प दिख रहा था उसमें कमी आ रही है। एक हफ्ते के अंदर ही राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर एकता खंडित होती दिख रही है। सत्तापक्ष और विपक्ष में एक दूसरे पर आरोप लगाने का सिलसिला शुरू हो गया है तो सामाजिक स्तर पर भी बिखराव हो गया है। पहलगाम में आतंकवादियों ने धर्म पूछ कर हिंदुओं की हत्या की थी। इससे यह नैरेटिव बना कि धर्म सबसे पहले है जाति नहीं।
इस नैरेटिव से कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान की आशंका सताने लगी और उसने सरकार की ओर से आतंकवादियों या पाकिस्तान के खिलाफ प्रतिक्रिया का इंतजार किए बगैर केंद्र सरकार और खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाना शुरू कर दिया। यह गलत फैसला था। कांग्रेस को इंतजार करना चाहिए था। लेकिन उसने एक बेहूदा तस्वीर के साथ ‘गायब प्रधानमंत्री’ का नैरेटिव बनाना शुरू किया।
कांग्रेस के स्पिन मास्टर्स को लग रहा था कि वक्फ बोर्ड बिल के बाद पहलगाम की घटना हुई है यानी ध्रुवीकरण कराने वाले दो बड़े मुद्दे बैक टू बैक आ गए हैं। इसका फायदा भाजपा उठा सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाजपा इसका लाभ लेने की कोशिश कर रही है। तभी प्रधानमंत्री मोदी भी पहलगाम कांड के बाद बिहार पहुंचे, जहां अगले कुछ महीने में विधानसभा का चुनाव होने वाला है। उन्होंने वहां से आतंकवादियों को ललकारा और ऐसी कार्रवाई की चेतावनी दी, जिसकी उन्होंने कल्पना नहीं की होगी।
कांग्रेस को यह भी लगा कि अगर वह ज्यादा खुल कर सरकार के साथ खड़ी होती है तो उसके समर्थकों में नाराजगी हो सकती है। इसलिए उसने हड़बड़ी में जुबानी जंग छेड़ दी। वैसे आधिकारिक रूप से कांग्रेस के सरकार के ऊपर हमलावर होने से पहले भी कांग्रेस के कम से कम सात नेता ऐसे थे, जो सरकार पर सवाल उठा चुके थे। इसके बाद ही कांग्रेस ने अपने नेताओं से चुप रहने को कहा।
एक तरफ कांग्रेस ने प्रतिक्रिया देने में जल्दबाजी की तो दूसरी ओर भाजपा ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए कांग्रेस को लश्कर और पाकिस्तान का समर्थक ठहराना शुरू कर दिया। सोचें, अगर कांग्रेस ने सरकार से सवाल पूछा है या यह जानना चाहा कि प्रधानमंत्री सर्वदलीय बैठक में क्यों नहीं आए या जम्मू कश्मीर क्यों नहीं गए या पहलगाम के पीड़ितों के परिजनों से क्यों नहीं मिले तो क्या इससे कांग्रेस यानी देश की मुख्य विपक्षी पार्टी लश्कर की समर्थक हो गई? यह क्या राजनीति है?
पाकिस्तान की शह पर आतंकवादियों ने भारत पर हमला, जिसे प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत की आत्मा पर हमला हुआ है, उस हमले में 26 बेकसूर लोग मारे गए और यहां देश की दोनों सबसे बड़ी पार्टियां आपस में स्कोर सेटल करने या राजनीतिक लाभ हानि की चिंता में लड़ने लगीं! आतंकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ क्या कार्रवाई होगी यह तय नहीं है लेकिन उससे पहले भाजपा और कांग्रेस में जंग शुरू हो गई!
इससे पहले कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि अभी पाकिस्तान के साथ युद्ध करने का समय नहीं है। हालांकि बाद में उन्होंने इस पर सफाई दी लेकिन भाजपा ने उनको भी पाकिस्तान और आतंकवादियों का एजेंट ठहरा दिया। सिद्धारमैया के खिलाफ भाजपा की प्रतिक्रिया दो स्तरों पर गलत है। पहला तो यह कि देश के किसी भी व्यक्ति को चाहे वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का सदस्य हो या कोई अन्य व्यक्ति, उसको अपनी राय रखने का पूरा अधिकार है। वह सरकार की राय या लोकप्रिय धारणा से अलग एक वैकल्पिक राय प्रस्तुत कर सकता है।
सो, अगर सिद्धारमैया ने कहा कि अभी पाकिस्तान से युद्ध का समय नहीं है तो इसके लिए उनको पाकिस्तान समर्थक बता कर उनका मुंह बंद कराने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। यह बहुत अलोकतांत्रिक है। वैसे पिछले कुछ समय से स्वंय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सैकड़ों बार कह चुके हैं यह युद्ध का समय नहीं है। इजराइल और हमास से लेकर रूस और यूक्रेन के संबंध में वे यह बातें कहते रहते हैं। लेकिन युद्ध लड़ रहे देश इसके लिए उनका मुंह बंद नहीं कराते हैं।
दूसरी बात यह है कि अगर सिद्धारमैया ने पाकिस्तान से युद्ध नहीं करने की सलाह दी है तो इससे वे पाकिस्तान के एजेंट नहीं हो जाते हैं। वे इस देश के एक राज्य के निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं। उनको पाकिस्तान का एजेंट बता कर भाजपा कर्नाटक के और एक तरह से देश के मतदाताओं का मजाक उड़ा रही है और पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर रही है।
दोनों बड़े राजनीतिक दलों की जुबानी जंग के बीच कुछ और घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनसे लग रहा है कि राजनीति और समाज का स्थायी विभाजन उभर कर सामने आ गया है। राजस्थान के भाजपा के एक विधायक ने 25 अप्रैल को जयपुर की जामा मस्जिद को ऐसे पोस्टर्स से पाट दिया, जिस पर भड़काऊ नारे लिखे गए थे और मस्जिद जाने या नमाज पढ़ने वालों को पहलगाम का हमला करने वाले आतंकवादियों से जोड़ा गया था। इसी तरह पहलगाम हमले के अगले दिन यानी 23 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के आगरा में एक गौरक्षक ने एक बिरयानी बेचने वाले की हत्या कर दी।
उधर भाजपा के एक सांसद ने पांच लाख पाकिस्तानी लड़कियों के भारत में शादी करके रहने का सोशल मीडिया नैरेटिव बनाया है। इस तरह की घटनाओं या बयानों से देश और समाज के स्तर पर विभाजन की धारणा बन रही है। अगर भारत सरकार पहलगाम में हमला करने वालों को सबक सिखाने की तैयारी कर रही है या पाकिस्तान की ओर से 75 साल से चलाए जा रहे छद्म युद्ध को स्थायी तौर पर समाप्त करना चाहती है और उसके लिए सेना को निर्देश दिए गए हैं तो सैन्य कार्रवाई से पहले देश में एकजुटता होनी चाहिए। देश की एकजुटता से सरकार के संकल्प को मजबूती मिलेगी।
ध्यान रहे एक विभाजित समाज कभी भी जंग में संपूर्ण विजय की उम्मीद नहीं कर सकता है। यह भी ध्यान में रखने की जरुरत है कि युद्ध में विजय राजनीतिक विजय की गारंटी नहीं होती है। इंदिरा गांधी ने 1971 में युद्ध जीता था और बांग्लादेश का गठन हुआ था लेकिन उसके साढ़े तीन साल बाद ही उनको इमरजेंसी लगानी पड़ी थी और युद्ध के बाद हुए पहले चुनाव में ही कांग्रेस हार कर सत्ता से बाहर हुई थी। आजादी के बाद कांग्रेस को पहली हार पाकिस्तान के साथ युद्ध की महान विजय के बाद वाले चुनाव में मिली थी। भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए यह सबक है।
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