कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आइडिया ऑफ कांग्रेस के साथ अपनी राजनीति शुरू की थी, जिसमें संयम और संतुलन मुख्य तत्व था। सांसद के तौर पर शुरू के पांच साल वे दूर से राजनीति और सरकार के कामकाज को देख रहे थे। पांच साल के बाद 2009 में जब वे दूसरी बार सांसद बने तो उन्होंने राजनीति में पहली बार अपने आइडिया पर अमल किया। उन्होंने कांग्रेस में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व खड़ा करने की योजना के तहत करीब एक दर्जन ऐसे नेताओं को मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री बनवाया, जिनकी उम्र 35 साल के आसपास थी। उस समय खुद राहुल गांधी 39 साल के था। राहुल के उस प्रयोग की सफलता-विफलता का आकलन अलग विषय है। राहुल का दूसरा हस्तक्षेप 2013 में दिखा, जब दागी नेताओं को बचाने के लिए लाए गए अध्यादेश का उन्होंने विरोध किया। उस विरोध में उन्होंने थोड़ी नाटकीयता जरूर दिखाई लेकिन वह शुचिता की राजनीति का एक आइडिया था, जिसका प्रतिनिधित्व राहुल गांधी कर रहे थे। उसके बाद उनकी पार्टी बुरी तरह से हार कर सत्ता से बाहर हो गई।
दस साल के शासन के बाद 2014 में कांग्रेस को भले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने हराया लेकिन उसकी पृष्ठभूमि तैयार की थी अरविंद केजरीवाल ने। भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे केजरीवाल राजनीति का एक नया मॉडल लेकर आए थे। संयम और संतुलन की जगह अतिरंजना उस राजनीति का मूल चरित्र थी। उन्होंने सब कुछ बेहद अतिरंजना के साथ या अतिश्योक्ति के साथ किया। केजरीवाल ने सभी पारंपरिक राजनेताओं को भ्रष्ट, बेईमान और निकम्मा घोषित कर दिया। हर संस्था के ऊपर संदेह पैदा कर दिया। विचारधारा की राजनीति का बंडल बना कर उसको कचरे के डब्बे में डाल दिया और राजस्व के स्रोत की जानकारी दिए गए बगैर सब कुछ मुफ्त बांटने का ऐलान कर दिया। समूचा देश चमत्कृत रह गया। भारत के नेताओं का संस्कार चाहे जितना भी बिगड़ा था लेकिन सब एक आदर्श और विचारधारा की बात जरूर करते थे। लेकिन केजरीवाल ने कहा कि विचारधारा कुछ नहीं होती है। सरकार विचारधारा से नहीं चलती है, बल्कि गवर्नेंस अपने आप में एक विचारधारा है। उनके लिए गवर्नेंस का मतलब था मुफ्त में चीजें और सेवाएं बांटना। यह भारत के लोगों का राजनीति के अतिश्योक्ति अलंकार से पहला परिचय था। भारत में पहले भी अराजक विचार वाले नेता रहे हैं लेकिन केजरीवाल ने सबको पीछे छोड़ दिया।
अब ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी उस रास्ते पर चल रहे हैं, जो रास्ता अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाने के बाद बनाया है। उनके विचारों में कांग्रेस का पुराना संतुलन नहीं दिखता है और न मध्यमार्ग पर चलने की सोच दिखती है। उनके मन में भी संस्थाओं के लिए सम्मान समाप्त हो गया है और वे भी अपने विरोधियों के प्रति उसी घृणा भाव से निर्देशित हो रहे हैं, जो कभी केजरीवाल की राजनीतिक पहचान थी। वे भी उसी किस्म की अतिरंजित बातें कर रहे हैं, जैसे कभी केजरीवाल किया करते थे। मुफ्त में वस्तुएं और सेवाएं बांटने की राजनीति को राहुल गांधी एक नई ऊंचाई पर ले गए हैं। पिछले लोकसभा चुनाव का कांग्रेस का घोषणापत्र और अलग अलग राज्यों में दी गई कांग्रेस की गारंटियों को देख कर इसे आसानी से समझा जा सकता है। वे अपने को एंग्री यंग मैन की तरह पेश कर रहे हैं। वे दिखाना चाह रहे हैं कि देश में जो आर्थिक विषमता है, सामाजिक भेदभाव है, अमीरी गरीबी की खाई है, अशिक्षा है इसके विरूद्ध उनके मन में गुस्सा खदबदा रहा है और वे इसे पूरी तरह से बदल देना चाहते हैं। चूंकि 10 साल सरकार में रहते और अपेक्षाकृत युवा उम्र में उनका यह गुस्सा नहीं दिखा था इसलिए अभी जो गुस्सा दिख रहा है वह स्वाभाविक नहीं होकर सोचा समझा, प्रायोजित और राजनीतिक मकसद से निर्देशित दिख रहा है।
अरविंद केजरीवाल की तरह राहुल गांधी हिट एंड रन की राजनीति कर रहे हैं। वे संस्थाओं की ईमानदारी और शुचिता पर सवाल उठा रहे हैं और उसका जवाब सुनने की बजाय कान बंद करके आगे बढ़ जा रहे हैं। उन्होंने भारत के चुनाव आयोग पर गंभीर आरोप लगाया है लेकिन आयोग का जवाब नहीं सुनना चाहते हैं। आयोग के जवाब से उनके आरोपों का खंडन होता है। इसलिए वह जवाब उनको पसंद नहीं है। उन्होंने आरोप लगा कर आयोग की छवि और उसकी साख को संदिग्ध बना दिया। इसी तरह वे आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा समाप्त करने की घोषणा करते हैं और बड़े गुस्से में यह पूछते हैं कि आबादी 85 फीसदी है तो आरक्षण 50 फीसदी करने का आइडिया कहां से आया? क्या सचमुच उनको पता नहीं है कि यह आइडिया कहां से आया? यह नहीं माना जा सकता है क्योंकि राजनीति की सामान्य समझ रखने वाले को भी पता है कि इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय की थी और उस समय केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी। बाद में कांग्रेस के समर्थन से दो सरकारें बनीं और फिर 10 साल कांग्रेस ने सरकार का नेतृत्व किया, तब राहुल गांधी भी सांसद थे। लेकिन तब एक बार भी उनके मुंह से आरक्षण शब्द सुनने को नहीं मिला था। उसकी सीमा बढ़ाने की बात तो दूर की है। इसलिए इस मामले में भी लगता है कि उनका गुस्सा और राजनीति सब प्रायोजित है।
जिस तरह से केजरीवाल ने अपने को ईमानदार ठहराने के लिए नेताओं, अधिकारियों और संस्थाओं को बेईमान बताया, लोकपाल लाकर प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सबको उसके दायरे में लाने का वादा किया, जिस तरह से सब कुछ मुफ्त बांटने का ऐलान किया उसी तरह से राहुल गांधी अतिरंजित राजनीति या घोषणा कर रहे हैं। वे भी कह रहे हैं पूरा सिस्टम हाईजैक कर लिया गया है, पूरा सिस्टम करप्ट हो गया है और सारी संस्थाएं कंप्रोमाइज्ड हो गई हैं। वे भी कह रहे हैं कि सरकार सब कुछ मुफ्त में देगी और मुफ्त नहीं देगी तो खूब सारा नकदी देगी, जिससे गरीबी मिट जाएगी। इतना ही नहीं पार्टी संगठन में भी वे केजरीवाल की ही तरह मेरिट की बजाय निष्ठा को तरजीह दे रहे हैं। उनके प्रति जो स्वामिभक्त है उसको पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण जगह मिल रही है और अपने दिल दिमाग से बात करने वालों को उनका इकोसिस्टम भाजपा का आदमी ठहरा रहा है। यही काम केजरीवाल ने अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के साथ किया था।
केजरीवाल से एक मामले में वे अलग हैं और वह मामला है आरक्षण का। हालांकि इसकी बात भी इतनी अतिरंजित है कि शायद ही किसी को यकीन आएगा। सोचें, इस देश में कौन मिस इंडिया की सूची में ओबीसी खोजना चाहेगा? राहुल गांधी खोज रहे हैं! उनके ज्ञान का स्तर इतना है कि वे देश के लोगों को बता रहे हैं कि 90 आदमी देश चलाता है, जिसमें कोई ओबीसी नहीं है, एससी नहीं है या एसटी नहीं है। उनके लिए देश के 90 सचिव ही सब कुछ हैं। प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, उनका मंत्रिमंडल और राज्यों के अधिकारी कुछ नहीं हैं! केजरीवाल आरक्षण की बात नहीं करते थे। राहुल ने आरक्षण को चुनाव जीतने के रामबाण फॉर्मूले की तरह अपनाया है। अब देखना है कि केजरीवाल ब्रांड की राजनीति उनको कहां तक ले जाती है।