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22-03-2025 Vol 19

अमेरिका में सबकुछ इतनी आसानी से कैसे बदला?

ट्रंप जो कर रहे हैं, वह एक व्यक्ति का सनकीपन नहीं है। बल्कि उस सनकीपन के पीछे एक सोच है, जिसने लंबे समय में ठोस रूप लिया है। ..अमेरिका के सार्वजनिक जीवन में प्रगतिकाल के इतिहास की जड़ें 1860 में गुलामी प्रथा मिटाने की पहल के खिलाफ हुए गृह युद्ध के बाद से ढूंढी जा सकती हैं।… अब शासक वर्ग अपनी हैसियत को लेकर इतना आश्वस्त है कि वह न्याय या समानता की चर्चा को भी पृष्ठभूमि में डाल देना चाहता है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि ये कोशिश कामयाब नहीं होगी। यह दौर भी पलटेगा, लेकिन उसकी शर्त यह है कि जो हुआ, वंचित समूह और उनके पैरोकार उससे सीख लें।

अमेरिका में जिस तरह डॉनल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति पद संभालते ही दशकों में हासिल हुई सामाजिक प्रगति को पलट दिया है (https://janchowk.com/pahlapanna/trump-took-america-back-a-century-in-one-day/), उससे लोग अचंभे में हैं।  लेकिन जो हुआ, वह उतना अप्रत्याशित नहीं है, जितना सामान्य तौर पर मालूम पड़ सकता है। इसके पीछे एक लंबी परिघटना रही है, फिलहाल जिसकी नुमाइंदगी ट्रंप का मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) मूवमेंट कर रहा है। वैसे मागा मूवमेंट असल में न्यू कंजरवेटिज्म के उदय और टी पार्टी आंदोलन का ही नया संस्करण है।

इस सिलसिले ने अमेरिका को कहां पहुंचा दिया है, इसका अंदाजा न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे एक इंटरव्यू से लगाया जा सकता है। इंटरव्यू प्रकाशित करने से पहले इसका जो परिचय अखबार ने दिया, उस पर ध्यान दीजिएः

“51 वर्षीय कंप्यूटर इंजीनियर कर्टिस यार्विन लंबे समय से आम तौर पर प्रचार से दूर रहते हुए राजनीतिक सिद्धांत पर ऑनलाइन लेखन करते रहे हैं। उनके विचार खासे चरमपंथी हैं, मसलनः अमेरिकी बौद्धिक जीवन के केंद्र में रहे मीडिया और शैक्षिक जैसे संस्थानों को प्रगतिशील समूहों ने कुचल डाला है और इसलिए अब इन्हें भंग कर देने की जरूरत है। वे मानते हैं कि सरकारी नौकरशाही में भारी कटौती कर दी जानी चाहिए।

शायद सबसे भड़काऊ उनकी यह दलील है कि अमेरिका में लोकतंत्र की जगह सीईओ व्यवस्था लागू की जानी चाहिए- इसका अर्थ तानाशाही या राजतंत्र स्थापना से ही है। अपनी सुविधा से उदाहरण चुन कर और मनमानी व्याख्या कर यार्विन अपनी दलील तैयार करते हैं। उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग इन उदाहरणों को ऐतिहासिक तथ्य मान सकते हैं, मगर जो लोग यह मानते हैं कि उन्होंने घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है, वे इसे अति-सरलीकरण करार देंगे।

यार्विन लंबे समय से राजतंत्र की वकालत करते रहे हैं। नए अमेरिकी प्रशासन में उनके विचारों के पर्याप्त श्रोता हैं। यार्विन भले अपने को प्रचार से दूर रखते हों, लेकिन उनके विचारों के साथ ये बात लागू है। उप-राष्ट्रपति जेडी वान्स ने परोक्ष रूप से उनके विचारों का हवाला देते हुए कहा है कि अमेरिकी संस्थाओं पर तथाकथित wokeism ने जबरन कब्जा कर लिया है। नए विदेश मंत्रालय के अधिकारी माइकल एन्टन ने यार्विन के साथ इस विषय पर बात की है कि कैसे किसी ‘अमेरिकन सीज़र’ को सत्ता में बैठाया जा सकता है। यार्विन के प्रशंसक शक्तिशाली और लगातार राजनीतिक रंग में ढलती गई सिलिकॉन वैली में भी मौजूद हैं।

वेंचर कैपिटलिस्ट मार्क एंड्रीसेन ने, जो नए राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के अनौपचारिक सलाहकार बन गए, यार्विन की लोकतंत्र विरोधी सोच का समर्थन करते हुए उसके उद्धरण दिए हैं। कंजरवेटिव अनुदानदाता पीटर थियेल ने यार्विन का उल्लेख प्रभावशाली इतिहासकार के रूप में किया है। थियेल ने ही यार्विन की टेक स्टार्ट-अप कंपनी में निवेश किया था। इन सबको देखते हुए इसमें शायद कोई आश्चर्य नहीं है कि यार्विन की दक्षिणपंथी मीडिया में नियमित मौजूदगी रहती है। जिन लोगों के कार्यक्रमों में वे बतौर गेस्ट उपस्थित हो चुके हैं, उनमें टकर कार्लसन और चार्ली किर्क शामिल हैं।” (https://www.nytimes.com/2025/01/18/magazine/curtis-yarvin-interview.html)

इस उदाहरण से यह साफ हो जाता है कि ट्रंप जो कर रहे हैं, वह एक व्यक्ति का सनकीपन नहीं है। बल्कि उस सनकीपन के पीछे एक सोच है, जिसने लंबे समय में ठोस रूप लिया है।

अमेरिका के सार्वजनिक जीवन में प्रगतिकाल के इतिहास की जड़ें 1860 में गुलामी प्रथा मिटाने की पहल के खिलाफ हुए गृह युद्ध के बाद से ढूंढी जा सकती हैं। उसी दौर में मजबूत श्रमिक आंदोलन भी उभरे थे। 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में महिला अधिकारों की चेतना फैलनी शुरू हुई। 1917 में सोवियत क्रांति ने इन सारे आंदोलनों को नई ऊर्जा और नए सपने प्रदान किए। यह प्रक्रिया 1929 में आई महामंदी के बाद फ्रैंकलीन डी। रुजवेल्ट के शासनकाल में मुख्यधारा बनी, हालांकि ब्लैक समुदाय के अधिकारों की असल लड़ाई 1950 के दशक में जाकर शुरू हो पाई।

इस सारी परिघटना का नतीजा ही वह प्रगति है, जिसे अब ट्रंपिज्म या मागा मूवमेंट पलटता दिख रहा है। खास प्रगति के बिंदु निम्नलिखित रहेः

  • रुजवेल्ट के दौर में पारित न्यू डील कानूनों ने पूंजीवादी व्यवस्था में रहने के बावजूद श्रमिकों को अभूतपूर्व अधिकार दिए।
  • न्यू डील के तहत सरकार ने अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप की मजबूत भूमिका बनाई। नतीजा, ऐसे तीव्र आर्थिक विकास के रूप में सामने आया, जिसके फायदे समाज के हर तबके (ब्लैक समुदाय को छोड़ कर) तक पहुंचे।
  • इससे मध्य वर्ग का दायरा तेजी से फैला। कुल मिलाकर समाज समृद्ध बना। इसी कारण उस दौर को “पूंजीवाद का स्वर्ण काल” कहा जाता है।
  • नए बने माहौल में ब्लैक समुदाय ने पूर्ण नागरिक का दर्जा पाने के लिए ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी और जीती, जिसे इतिहास में सिविल राइट्स मूवमेंट के नाम दर्ज किया गया है।
  • सामाजिक समृद्धि के साथ नए वैज्ञानिक आविष्कारों ने प्रगति का वह आधार तैयार किया है, जिस पर आगे चल कर महिला अधिकार और ट्रांसजेंडर अधिकारों के संघर्ष खड़े हुए।
  • इन परिघटनाओं ने नई उदार एवं उपभोक्ता संस्कृतियों की संभावना पैदा की। उसकी एक मिसाल अमेरिकी समाज में हुई कथित यौन क्रांति है।
  • इसकी दूसरी मिसालें हिप्पी, Beat Generation, Punk Movement, Rave Culture और New Age Movement जैसे हैं, जिन्हें काउंटर-कल्चर मूवमेंट्स के नाम से जाना गया।

दूसरे विश्व युद्ध का एक बड़ा परिणाम अमेरिका का दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति के रूप में स्थापित होने के रूप में सामने आया था। मगर उसके साथ कम्युनिज्म के प्रसार ने सारी दुनिया को मनमाने ढंग से चलाने की वहां की शासक वर्ग की इच्छा पर सीमाएं लगा दीं। कोरिया युद्ध में सीमित सफलता और वियतनाम युद्ध में पराजय ने अमेरिकी शासक वर्ग में बड़ी व्यग्रता पैदा की।

इन सबकी प्रतिक्रिया न्यू कंजरवेटिव मूवमेंट के रूप में दिखी। इसके तत्वों और उद्देश्यों पर गौर करेः

  • पारंपरिक ईसाई संस्कृति का संरक्षण
  • पारिवारिक मूल्यों पर जोर (यानी काउंटर कल्चर का विरोध)
  • श्वेत विशेषाधिकारों को कायम रखना और जहां ये क्षीण हो गए हैं, उन्हें पुनर्स्थापित करना।
  • महिलाओं को पुरातन उसूलों में बांधे रखना।
  • अर्थव्यवस्था में पूंजी को बंधन मुक्त करना- यानी न्यू डील के दौर में हुई जनपक्षीय प्रगतियों को पलटना। यही प्रयास आगे चल कर नव-उदारवाद के रूप में विकसित हुआ।
  • दुनिया पर अमेरिका का समग्र नियंत्रण कायम करना। इसके लिए पहली मुहिम के बतौर कम्युनिज्म से संघर्ष को प्राथमिकता दी गई।
  • साथ ही यह वकालत शुरू की गई कि ‘लोकतंत्र’ और ‘खुला समाज’ होने के नाते पूरी दुनिया को अपने रंग-ढंग में ढालना अमेरिका का नैतिक कर्त्तव्य है।

न्यू कंजरवेटिज्म के पक्ष में अमेरिका के पूंजीपति तबके के एक बड़े हिस्से ने संसाधन झोंके। इस मकसद से मीडिया में प्रभाव बनाने, थिंक टैंक और Theory industry (सिद्धांत गढ़ने का उद्योग) (https://monthlyreview.org/2023/12/01/imperialist-propaganda-and-the-ideology-of-the-western-left-intelligentsia/#en66backlink) को फंड करने और गढ़े गए सिद्धांतों को प्रचालित करने के लिए एनजीओ कल्चर को आगे बढ़ाने की रणनीति पर काम किया गया। उत्तर आधुनिकतावाद, परिवर्तन की किसी बड़ी दृष्टि से मुक्त- स्वायत्त आंदोलन का विचार और Wokeism इसी प्रक्रिया का हिस्सा थे।

Woke का शाब्दिक अर्थ होता है- वह व्यक्ति या समूह, जो सामाजिक अन्याय या भेदभाव के प्रति जागरूक हों। मगर Wokeism की बनी पहचान यह है कि इस परिघटना ने अन्याय को वर्गगत (class) नजरिए से देखने के बजाय इसने इसे खंड-खंड में- हर समूह के लिए अलग नजरिए से समझने की दृष्टि को प्रचारित किया है। समझ फैलाई है कि अन्याय विरोधी संघर्ष स्वायत्त आंदोलनों के रूप में लड़े जाएंगे। यानी महिला अधिकार, ब्लैक (भारत के संदर्भ में जाति) समुदाय, एलजीबीटीक्यू आदि अपनी-अपनी लड़ाइयां अलग लड़ें। इन समुदायों के शोषण का कोई व्यवस्थागत या वर्गगत संबंध है, इस दृष्टि को हतोत्साहित किया गया।

यह समझ बनाई गई कि व्यवस्था संरचना में बिना किसी आमूल परिवर्तन के ही तमाम “शोषित” या “पिछड़े” समुदाय न्याय प्राप्त कर लेंगे। इस विमर्श में equality के तकाजे को धूमिल करने के साथ उसकी जगह equity को लक्ष्य बनाने के महत्त्व पर जोर दिया गया। equity हासिल करने के लिए बहुलता (diversity) और समावेशन (inclusiveness) की नीतियों की वकालत की गई।

गौरतलब है कि इस विमर्श के संचालक ज्यादातर वही लोग रहे हैं, जो अपेक्षाकृत सुविधा-प्राप्त पृष्ठभूमि से आते हैं और जिन्हें व्यक्तिगत रूप से diversity और inclusiveness की नीतियों का लाभ मिला है। ये वो लोग हैं, जो थिंक टैंक और एनजीओ कल्चर से लाभान्वित रहे हैं। धीरे-धीरे लोग ये लोग अभिजात्य (इलीट) वर्ग का हिस्सा बनते चले गए हैं और अभिजात्य नजरिए से समाज की संचरना को देखने के आदती हो गए हैं।

यही कारण है कि 2016 और 2020 में जब अमेरिका में बर्नी सैंडर्स ने विषमता, यूनिवर्सिल हेल्थ केयर और मुफ्त शिक्षा के मुद्दों को केंद्र में रख कर अपना अभियान खड़ा किया, तब ब्लैक, नारीवादी, एलजीबीटीक्यू आदि के कई समुदाय उसे बदनाम करने में जुट गए थे। उन्होंने इसे “ब्रनी ब्रदर्स” का अभियान बताया- जिसका अर्थ था ऐसे श्वेत पुरुषों का आंदोलन जो equity को पृष्ठभूमि में डाल देना चाहते हैं। तब उन्होंने ट्रंपिज्म को equity के लिए खतरा बता कर डेमोक्रेटिक पार्टी के ऐस्टैबलिशमेंट की लोकतंत्र विरोधी तिकड़मों के तहत उम्मीदवार चुने गए हिलेरी क्लिंटन और जो बाइडेन को अपना समर्थन दिया।

प्रश्न है कि Woke समूह या Wokeism ट्रंपिज्म को रोक क्यों नहीं पाया, जिसने अभूतपूर्व चुनावी समर्थन के साथ equity की तमाम नीतियों को अब पलट दिया है? इसके खिलाफ ये समूह जिन समुदायों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं, उनकी कोई बड़ी जन गोलबंदी कर पाने में ये समूह क्यों नाकाम हैं?

इस सोच के लोग आत्म-मंथन करें, तो पाएंगे कि शासक वर्गों ने थिंक टैंक्स, मीडिया, विश्वविद्यालयों और एनजीओ के माध्यम से उन्हें जो सोच प्रदान की, उसका भी बड़ा योगदान दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुई प्रगति की दिशा पलटने में है। Wokeism को सिस्टम के बजाय कुछ समुदायों के खिलाफ तीखा कथानक फैलाते हुए खड़ा किया गया। नतीजा, उन समुदायों से आए श्रमिक वर्ग में भी खास प्रतिक्रिया हुई। वह प्रतिक्रिया क्रमिक रूप से उन्हें धुर-दक्षिणपंथी- कट्टरपंथी नजरिए के पक्ष में गोलबंद करती चली गई। ट्रंपिज्म हो या यूरोप की धुर-दक्षिणपंथी ताकतें या भारत में भाजपा का जनाधार- उन सबको तैयार करने में इस प्रक्रिया का भी एक प्रमुख योगदान रहा है।

Woke समूह सिविल राइट्स मूवमेंट के नेताओं की समझ और विचारों को ध्यान में रखते, तो वे इस संभावना को लेकर जागरूक रह सकते थे। इन नेताओं की समझ साफ थी कि हर समूह या व्यक्ति की मुक्ति सामूहिक मुक्ति में है। मसलन, मार्टिन लूथर किंग जूनियर के इन कथनों पर ध्यान दीजिएः

“हमें स्वतंत्रता के लिए अपनी प्यास को कड़वाहट एवं नफरत भरे कप से नहीं बुझानी है।”,

“इसे आप लोकतंत्र कहें या डेमोक्रेटिक सोशलिज्म, लेकिन इस देश में ईश्वर की संतानों के लिए धन का बेहतर बंटवारा अवश्य होना चाहिए”, और

“अगर हमें वास्तविक समानता हासिल करनी है, तो अमेरिका में संशोधित किस्म का समाजवाद स्थापित करना ही होगा।” (https://www.azquotes.com/quote/1462450)

मैल्कम एक्स आदि जैसे इस आंदोलन के अन्य चेहरों और ब्लैक पैंथर जैसे संगठनों ने भी अपने संघर्ष का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना बताया था। दरअसल, इसी बड़ी दृष्टि को खंडित करने के लिए Wokeism और स्वायत्त संघर्ष के विचार शासक वर्गों ने प्रचारित किए। उसे फैलाने, में पीड़ित एवं शोषित तबकों से सिर्फ पहचान (identity) के आधार पर संबंध रखने वाले, लेकिन अपने वर्ग चरित्र में सुविधाभोगी तबके से आए कार्यकर्ता मददगार बने। इससे शोषण मुक्त एक नई दुनिया बनाने के बीसवीं सदी में हुए महान प्रयोगों को झटका लगा। उस प्रयास में फौरी कामयाबी के बाद शासक वर्ग ने अब diversity, equity और inclusiveness के ख्यालों पर घातक प्रहार शुरू कर दिए हैं।

ऐसा होता हम दुनिया के उन तमाम देशों में देख सकते हैं, जहां बीसवीं सदी में सामाजिक प्रगति का नया दौर आता दिखा था। वह दौर समग्र न्याय के लिए सभी वंचित समूहों के साझा संघर्ष के परिणामस्वरूप आया था। इस संघर्ष को खंडित करने के बाद अब शासक वर्ग अपनी हैसियत को लेकर इतना आश्वस्त है कि वह न्याय या समानता की चर्चा को भी पृष्ठभूमि में डाल देना चाहता है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि ये कोशिश कामयाब नहीं होगी। यह दौर भी पलटेगा, लेकिन उसकी शर्त यह है कि जो हुआ, वंचित समूह और उनके पैरोकार उससे सीख लें। वे विचार करें कि आगे बढ़ते-बढ़ते आखिर उनकी लड़ाई को पीछे कैसे धकेल दिया गया है?

अच्छी बात यह है कि अमेरिका में इस परिघटना और उसके परिणामों पर पुनर्विचार शुरू हो गया है। (https://www.currentaffairs.org/news/what-would-it-actually-mean-to-be-woke)। देर-सबेर ऐसा हर हर जगह होगा। दरअसल, इसके अतिरिक्त कोई और रास्ता भी नहीं है।

सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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