तेजस्वी प्रण में बिहार की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी को एड्रेस किया गया है। हर घर में एक सरकारी नौकरी। बहुत बड़ा वादा है।… बिहार बेरोजगारी में भी देश में अव्वल है। प्रति व्यक्ति आय भी सबसे कम है और सबसे ज्यादा पलायन भी यहीं से होता है। इसलिए तेजस्वी का नौकरी का हर घर में एक सरकारी नौकरी का वादा यहां सबसे ज्यादा क्लिक कर रहा है।
बिहार में नीतीश कुमार ने वंदोपाघ्याय आयोग बनाया था। मगर अब उसे लागू करने की घोषणा महागठबंधन का प्रमुख घटक दल सीपीआई (माले) कर रहा है। मंगलवार को महागठबंधन का घोषणा पत्र तेजस्वी प्रण के नाम से जारी हुआ। मगर उससे पहले माले अपना अलग घोषणा पत्र जारी कर चुका है। माले के प्रमुख वादे भूमिहीनों का भूमि आवंटन का उसमें जिक्र नहीं है। माले ने कांग्रेस और आरजेडी से इस मुद्दे को शामिल करने की मांग की थी। मगर एकदम से भूमिहीनों के साथ पूरी तरह खड़े होने को आरजेडी और कांग्रेस इस समय तैयार नहीं हो पाए।
बिहार में भूमि ही सबसे बड़ी समस्या है। देश का सबसे ज्यादा भूमिहीन बिहार में ही है। यहां जो जातीय युद्ध हुए। रणवीर सेना बनी उन सबके पीछे भूमि समस्या ही रही है।
बिहार में लगभग 60 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं। और दलितों में तो लगभग 86 प्रतिशत के पास कोई जमीन नहीं है। दूसरी तरफ दस प्रतिशत ताकतवर लोगों के पास पचास प्रतिशत से ज्यादा जमीन है। जो एक एक के पास हजारों एकड़ में है। बाकी करीब 30 प्रतिशत के पास जमीन तो है मगर दो बीघे से कम।
इसी असमान भूमि वितरण को देखते हुए नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनते ही 2006 में वंदोपाध्याय आयोग का गठन किया था। 2008 में इसकी रिपोर्ट आ गई। मगर नीतीश ने इसे लागू करने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। हां, भाजपा को बीच बीच में डराने के लिए वे इसका जिक्र जरूर कर देते थे।
भाजपा के लिए भूमि सुधार ( लेंड रिफार्म ) एक ऐसा अवरोधक है कि जहां भी यह हुआ वह कभी सरकार नहीं बना पाई। पूरी तरह देश में यह अभी तक तीन राज्यों में लागू हुआ है। जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल और केरल। और तीनों ही जगह भाजपा सफल नहीं हो पा रही।
माले ने भी अपने घोषणापत्र में उसे उस तरह लागू करने की बात नहीं कही है जिससे तनाव बढ़े। वह महागठबंधन में है जिसमें आरजेडी और कांग्रेस ने बड़े भूपतियों को भी टिकट दिए है।
मगर बिहार की मूल समस्या को लाइम लाइट में रखने के लिए उसने ग्रामीण क्षेत्र के भूमिहीनों को 5 डिसिमल और शहरी क्षेत्र के भूमिहीन को 3 डिसिमल जमीन देने का वादा किया है। इसके अलावा उसका जो दूसरा बड़ा वादा है वह है शिक्षा पर बजट का दस प्रतिशत खर्च करना। अगर यह हो गया तो बिहार में निरक्षरता पूरी तरह खत्म हो जाएगी। अभी बिहार में साक्षरता दर देश में सबसे कम है। केवल 61. 8 प्रतिशत। सबसे उपर केरल है। जहां शत प्रतिशत लोग साक्षर हैं। मगर वहां के हर चुनाव में जाकर बीजेपी के नेता उसे यूपी और बिहार जैसा बनाने का वादा करते हैं। नतीजा यह होता है कि श्रीधरन जैसा अन्तरराष्ट्रीय ख्याति का टेक्नोक्रेट जो मेट्रोमेन के नाम से मशहूर है वह भी बीजेपी के टिकट से चुनाव हार जाता है।
घोषणापत्र जिसका नाम तेजस्वी प्रण है वह भी अच्छा है। और उसमें बिहार की सामने दिखाई दे रही सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी को एड्रेस किया गया है। हर घर में एक सरकारी नौकरी। बहुत बड़ा वादा है। ऐसा ही दूसरा बड़ा वादा जीविका दीदियों को स्थाई करना। सरकारी कर्मचारी का दर्जा देना और सीधे तीस हजार रुपए महीना देना। जीवीका दीदी की संख्या बिहार में करीब 9 लाख है।
यह नौकरी का वादा बिहार में बहुत बड़ा है। और तेजस्वी की इस क्षेत्र में भारी विशवसनीयता है। उप मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने पांच लाख सरकारी शिक्षक नियुक्त करने का कीर्तिमान रचा है। और वैकेन्सी निकलाने से लेकर परीक्षा रिजल्ट नियुक्ति कहीं भी एक भी गड़बड़ी की शिकायत नहीं मिली। नहीं तो बीजेपी के अधिकांश राज्यों में पेपर लीक, परीक्षा कैसिंल होना, रीजल्ट आ जाए तो नियुक्ति नहीं होना अब आम समस्या बन गई है।
बिहार बेरोजगारी में भी देश में अव्वल है। प्रति व्यक्ति आय भी सबसे कम है और सबसे ज्यादा पलायन भी यहीं से होता है। इसलिए तेजस्वी का नौकरी का हर घर में एक सरकारी नौकरी का वादा यहां सबसे ज्यादा क्लिक कर रहा है।
बिहार वास्तविक समस्याओं वाला प्रदेश है। और चाहे माले हो या महागठबंधन सबने इन वास्तविक मुद्दों को ही अपने घोषणा पत्र में एड्रेस किया है। एक दूसरे के विचारों के साथ समन्वय करते हुए। अतिरेक की बात किसी ने नहीं की। यही महागठबंधन की ताकत है।
दूसरी तरफ अभी एनडीए के घोषणा पत्र का ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री फेस का भी इंतजार है। बीजेपी नीतीश को घोषित करने को तैयार नहीं। इस बार वह अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। मगर खुद की पार्टी में घोषणा करने के बदले वह पर्ची पर ज्यादा यकीन करती है। जिसमें राजस्थान के भजनलाल शर्मा, मध्यप्रदेश के मोहन यादव, दिल्ली की रेखा गुप्ता जैसे नाम निकलते हैं। जिनका अपना कोई आधार नहीं होता बस मोदी के नाम के सहारे ही चलते हैं।
मगर इस बार जो समस्या बीजेपी के सामने सबसे बड़ी आ गई है वह यह कि खुद मोदी का नाम अब कमजोर पड़ गया है। पहले 2024 लोकसभा में वे बहुमत भी हासिल नहीं कर पाए। और फिर पहलगाम के आतंकवादी हमले और पाकिस्तान के साथ संघर्ष में अचानक सीज फायर ने उनकी छवि बहुत कमजोर बना दी।
अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप लगभग उनका मजाक उड़ाने लगे। रोज कहते हैं कि मेरे कहने से मोदी ने सीजफायर किया। रुस से तेल न खरीदने का वादा किया। 60 से ज्यादा बार ट्रंप इस तरह के दावे कर चुके हैं। और एक बार भी मोदी इसका खंडन नहीं कर पाए। भारत अभी भी हथकड़ी बेड़ी पहनकर युवा वापस आ रहे हैं। मगर मोदी इतना भी नहीं कह पा रहे कि इस तरह भरतीयों का अपमान मत करो।
ऐसे में केवल मोदी के नाम पर चुनाव लड़ना बीजेपी को बिहार में कितना फायदा कितना नुकसान पहुंचाएगा कहना मुश्किल है। नीतीश का फिर भी एक बड़ा जनाधार है। जिसमें व्यापक रूप से महिलाएं जो जीवीका दीदी और शराबबंदी के कारण उनसे जुड़ी हैं। और इसके अलावा अति पिछड़ा वर्ग। जो समुदाय के तौर पर बिहार में सबसे बड़ा है। 36 प्रतिशत।
तो यह महिला वर्ग और अति पिछड़ा अगर नीतीश को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं मानते हैं तो छिटक जाएगा। बीजेपी के लिए बहुत बड़ा सेटबैक होगा। क्योंकि उनके पास केवल मुख्यमंत्री का नाम ही एक बड़ा आकर्षण है। घोषणा पत्र को उनके कोई गंभीरता से नहीं लेता। सब जानते हैं कि जो मोदी और अमितशाह बोलते हैं हिन्दू मुसलमान घुसपैठिए, भैंस खोल ले जाएंगे, मंगल सूत्र छीन लेंगे वही उनका असली घोषणा पत्र होता है।
घोषणा पत्र में वे अभी जिस तरह विज्ञापन दे रहे हैं विकसित बिहार का ही वादा करेंगे।
20 साल से वहां नीतीश और भाजपा की राज्य सरकार है। और साढ़े 11 साल से केन्द्र में मोदी की सरकार। मगर विकास अब करेंगे।
यह बात जनता को समझ में आ गई है। चुनाव इसी मुद्दे पर होगा कि किस के वादों की विश्वसनीयता है। और किसके वादे केवल जुमले हैं।


