delhi election kejriwal : किसी घटना के घटित हो जाने के बाद उसका विश्लेषण सबसे आसान काम होता है। जैसे अरविंद केजरीवाल दिल्ली में विधानसभा का चुनाव क्यों हार गए और क्या किया होता तो नहीं हारते, यह बताने वाले असंख्य लोग हैं।
यह अलग बात है कि इनमें से कम ही लोग होंगे, जो चुनाव के मध्य में या उससे पहले लिख कर या बोल कर बता रहे थे कि केजरीवाल का अमुक काम उनके लिए नुकसानदेह होगा और अमुक काम को अगर वे इस ढंग से करते तो फायदा होता। (delhi election kejriwal)
इसमें कोई संदेह नहीं है कि केजरीवाल को हराने के लिए भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार ने पूरा दम लगाया। उसने धारणा के स्तर पर केजरीवाल की छवि भंग कर दी थी और बहुत बारीक चुनाव प्रबंधन किया था।
कांग्रेस पार्टी की भूमिका पर भी संदेह नहीं है। परंतु यह भी सही है कि अरविंद केजरीवाल की रणनीतिक भूलों ने आम आदमी पार्टी की हार का मार्ग प्रशस्त किया। (delhi election kejriwal)
पिछले 10 साल की संचित भूलों की बात नहीं भी करें तो पिछले एक साल में उन्होंने जो गलतियां कीं उनमें मुख्य रूप से पांच गलतियों को रेखांकित किया जा सकता है, जो उनकी हार का कारण बनीं।
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केजरीवाल ईमानदारी करके सत्ता में (delhi election kejriwal)
पहली रणनीतिक भूल इस्तीफे की टाइमिंग और उसके तरीके की है। अरविंद केजरीवाल ईमानदारी की राजनीति करके सत्ता में आए थे। उनका समर्थक वर्ग उनसे संपूर्ण ईमानदारी की उम्मीद कर रहा था।
तभी शराब नीति से जुड़े घोटाले में नाम आने और जांच शुरू होने के साथ ही अगर वे इस्तीफा देते तो यह उनकी राजनीति के अनुरूप होता।
वे नैतिकता, शुचिता और ईमानदारी के जिस उच्च मानदंड की बात करते थे उसका अनुपालन अगर उन्होंने खुद नहीं किया तो वे कैसे उम्मीद कर रहे थे कि मतदाता उस पर यकीन करेंगे! (delhi election kejriwal)
उन्होंने वह किया, जो भारतीय राजनीति में पहले किसी ने नहीं किया था। वे मुख्यमंत्री रहते जेल गए और इस्तीफा नहीं दिया। इससे उनके प्रति धारणा बदली। वे सत्तालोलुप माने गए।
केजरीवाल जेल जाकर भी सीएम बने रहने को अपना मास्टरस्ट्रोक मानते होंगे और सहानुभूति की उम्मीद करते होंगे लेकिन उनके इस एक फैसले ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया।
बजट में घोषित फैसलों पर अमल नहीं
दिल्ली के लोगों में यह संदेश गया कि केजरीवाल के लिए नैतिकता, ईमानदारी, शुचिता, परंपरा, कानून नहीं, बल्कि सत्ता सबसे ऊपर है और दूसरे, दिल्ली के लोगों का हित भी उनका सरोकार नहीं है। (delhi election kejriwal)
अगर होता तो वे कामकाज ठप्प करके जेल से मुख्यमंत्री नहीं बने रहते। उनके जेल में होने से पांच महीने तक सारे कामकाज ठप्प रहे। कैबिनेट की बैठकें नहीं होती थीं।
बजट में घोषित फैसलों पर अमल नहीं हुआ। इसके बावजूद भाजपा विरोधी समूह तो उनके साथ बना रहा परंतु लोकसभा में भाजपा को और विधानसभा में आप को वोट देने वाले 15 फीसदी के करीब का मतदाता समूह उनको छोड़ कर चला गया।
जेल से निकलने के बाद उन्होंने इस्तीफा दिया और आतिशी को मुख्यमंत्री बनाया। लेकिन उसी समय यह घोषणा कर दी कि चुनाव के बाद वे फिर मुख्यमंत्री बनेंगे। (delhi election kejriwal)
आतिशी ने अपनी स्वामीभक्ति में आगे बढ़ कर मुख्यमंत्री की कुर्सी की बगल में एक दूसरी कुर्सी लगाई और उस पर बैठीं। लोकतंत्र में इस तरह से ऐलानिया तौर पर खड़ाऊ राज चलाने की यह पहली मिसाल थी।
अव्वल तो जब जेल से छूट गए तो इस्तीफा देने की जरुरत नहीं थी और दे दिया तो यह कहने की जरुरत नहीं थी कि चुनाव के बाद फिर हम मुख्यमंत्री बनेंगे। इससे फिर सत्ता का लालच जाहिर हुआ और महिला मुख्यमंत्री आतिशी के कामचलाऊ होने की धारणा बनी, जिससे उनकी कोई ऑथोरिटी नहीं बन पाई।
राजनीतिक गलतियों की भारी कीमत (delhi election kejriwal)
केजरीवाल के जेल जाने से जो कामकाज रूके थे वह जेल से छूटने के बाद भी नहीं हुए। उनके सामने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की मिसाल थी, जो इस्तीफा देकर जेल गए और छूटे तो मुख्यमंत्री बनते ही मइया सम्मान योजना के तहत महिलाओं को पैसे दिए।
केजरीवाल ने पिछले साल फरवरी के बजट में महिलाओं को नकद पैसे देने की घोषणा की थी लेकिन इस साल फरवरी के चुनाव तक महिलाओं को कोई पैसा नहीं मिला। (delhi election kejriwal)
दूसरी रणनीतिक भूल गठबंधन से इनकार करना थी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी चाहते थे कि दोनों पार्टियां मिल कर लड़ें।
परंतु केजरीवाल को लग रहा था कि दिसंबर 2013 में अपने आठ विधायकों का समर्थन देकर उनको मुख्यमंत्री बनवाने की जो गलती कांग्रेस ने की थी वह गलती उनको नहीं करनी चाहिए।
अगर दिल्ली में तालमेल होता तो कांग्रेस का जो वोट उनके साथ आया है उसके लौटने की शुरुआत हो सकती थी। (delhi election kejriwal)
कांग्रेस को इसका फायदा होता। हो सकता है कि ऐसा होता लेकिन चुनाव नतीजों के बाद तो दिख रहा है कि अगर दोनों पार्टियां साथ लड़ी होतीं तो आम आदमी पार्टी जीतती और केजरीवाल फिर मुख्यमंत्री होते। अब तो वे विधायक भी नहीं हैं तो अब कांग्रेस का वोट वापस उसकी ओर लौटने से कैसे रोकेंगे?
रणनीतिक भूल सिसोदिया की सीट बदलना (delhi election kejriwal)
तीसरी रणनीतिक गलती ‘गैरों पे करम, अपनों पे सितम’ की थी। केजरीवाल ने 26 विधायकों की टिकट काट दी और चार विधायकों की सीट बदल दी। इनकी जगह नए लोगों को विधानसभा चुनाव में उतारा गया।
उन्होंने जिन लोगों की टिकट काटी उनमें लगभग सभी उनके पुराने और प्रतिबद्ध सहयोगी थे, जबकि जिनको टिकट दी उनमें से ज्यादातर दूसरी पार्टियों से आए मौकापरस्त नेता थे।
मिसाल के तौर पर आंदोलन के समय से साथी रहे दिलीप पांडेय की टिकट केजरीवाल ने काट दी और दो बार कांग्रेस से विधायक रह चुके सुरेंद्र पाल सिंह बिट्टू को तिमारपुर से टिकट दिया। (delhi election kejriwal)
नतीजा क्या हुआ? आप के लोगों ने बिट्टू का साथ नहीं दिया और वे चुनाव हार गए। ऐसे ही विधानसभा के स्पीकर रामनिवास गोयल की टिकट काट कर भाजपा से आए जितेंद्र सिंह शंटी को उम्मीदवार बनाया और वे 25 हजार से ज्यादा वोट से हारे।
केजरीवाल ने नौ ऐसे लोगों को टिकट दी, जो भाजपा और कांग्रेस छोड़ कर आए थे। उनमें से छह लोग चुनाव हारे। उन्होंने जिन 27 नए लोगों को टिकट दी थी उनमें से 20 लोग चुनाव हार गए।(delhi election kejriwal)
चौथी रणनीतिक भूल सिसोदिया की सीट बदलना थी। अरविंद केजरीवाल 2013 में आधी लड़ाई उसी दिन जीत गए थे, जिस दिन उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ लड़ने का फैसला किया।
उसी तरह 2025 की आधी लड़ाई वे उसी दिन हार गए, जिस दिन उन्होंने अपने नंबर दो मनीष सिसोदिया की सीट बदली। सिसोदिया तीन बार से पटपड़गंज सीट से जीत रहे थे।
मुफ्त की योजनाओं पर अति निर्भरता
दावा किया जा रहा था कि उन्होंने दिल्ली में शिक्षा क्रांति की और 18 विभागों का मंत्री रहते उन्होंने दिल्ली का कायाकल्प किया।
सोचें, जो व्यक्ति पूरी दिल्ली की तस्वीर बदल रहा था उसने क्यों अपने चुनाव क्षेत्र की तस्वीर ऐसी नहीं कर दी कि उसे क्षेत्र न छोड़ना पड़े? सिसोदिया के सीट बदलने का बहुत नकारात्मक असर हुआ। (delhi election kejriwal)
आम आदमी पार्टी की 10 साल की सरकार के सारे किए धरे पर पानी फिर गया। क्या होता अगर सिसोदिया वहां जातीय या क्षेत्रीय ध्रुवीकरण में हार जाते? हार तो वे जंगपुरा में भी गए!
अगर वे सीट नहीं बदलते तो हो सकता है कि वे हार जाते लेकिन आप सरकार के कामकाज को लेकर इतनी नकारात्मक धारणा नहीं बनती।
पांचवीं रणनीतिक भूल मुफ्त की योजनाओं पर अति निर्भरता रही। अरविंद केजरीवाल ने अपने 10 साल के शासन में यह मान लिया कि मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, महिलाओं को मुफ्त बस पास आदि के नाम पर ही चुनाव जीता जा सकता है। (delhi election kejriwal)
इसके अलावा किसी अन्य बात पर ध्यान देने की जरुरत नहीं है। उन्होंने दिल्ली के लोगों की रोजमर्रा की समस्याओं की पूरी तरह से अनदेखी कर दी।
यमुना नदी मर चुकी है (delhi election kejriwal)
दिल्ली की सड़कें टूट रही हैं, नई या वैकल्पिक सड़क नहीं बनने से ट्रैफिक की स्थिति बदतर होती जा रही है, यमुना में नाले गिरने और सफाई नहीं होने से यमुना नदी मर चुकी है
जल बोर्ड का पानी इतना दूषित हो गया है कि लोगों को अनेक किस्म की बीमारियां हो रही हैं, सर्दियों में तीन से चार महीने वायु प्रदूषण से लोगों का दम घुट रहा है, सड़कों से लेकर गलियों और कॉलोनियों में बेतहाशा अतिक्रमण बढ़ रहा हैI (delhi election kejriwal)
रोजगार बढ़ाने का कोई उपाय नहीं हो रहा है, नए स्कूल और नए अस्पताल नहीं बन रहे हैं, बुनियादी ढांचे के विकास पर सरकार का ध्यान नहीं है, लेकिन केजरीवाल इस मुगालते में रहे मुफ्त की चीजों और सेवाओं के आगे इनकी कोई जरुरत नहीं है।
वे भूल गए कि दिल्ली देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले ज्यादा जागरूक, सजग और समृद्ध लोगों का शहर है, जहां मुफ्त की चीजों से आगे भी कुछ करने की जरुरत थी।
आम लोगों खास कर मध्य वर्ग की तकलीफों से केजरीवाल के तटस्थ हो जाने का बड़ा असर चुनाव पर हुआ। (delhi election kejriwal)
चुनाव बाद के सर्वेक्षणों में से भी पता चलता है कि भ्रष्टाचार के साथ साथ सफाई, साफ पानी और साफ हवा की मांग ने केजरीवाल को हराने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई।