अपने तपे-तपाए लोगों को सोशल मीडिया के ज़रिए संबोधित करने के बजाय क्या राहुल या मल्लिकार्जुन खड़गे उन्हें बुला कर सीधे बात नहीं कर सकते थे? इस से फ़जीहत किस की हुई? ठीक है कि नरेंद्र भाई ने अच्छा बहेलिया-जाल बिछाया था और उस में कांग्रेसी दिग्गजों को नहीं फंसना चाहिए था, मगर उस की काट करने की कोशिश क्या इस तरह होनी चाहिए थी? राहुल इस मामले में गच्चा खा गए हैं।
राहुल गांधी क़रीब-क़रीब अकेले पड़ते जा रहे हैं। अपनी पार्टी में भी और विपक्षी गठबंधन में भी। कांग्रेस के भीतर भी इने-गिने ही, पूरे मन से, ईमानदारी से और अविचल भाव से उन के साथ हैं और यही हाल इंडिया समूह के राजनीतिक दलों का है। अच्छी बात यह है कि, दूर से देख-समझ कर ही सही, मुझे लगता है कि राहुल को इस बात का पूरी तरह अहसास है कि अब उन्हें भीतर-बाहर की दुनिया में अकेले ही अपना रास्ता तय करना है।
वे समझ गए है कि उन के आसपास की मंडली में चंद लोग ही ऐसे हैं, जो उन्हें असलियत से वाबस्ता रखने का काम अभी भी कर रहे हैं, बाकी सब उन्हें बरगला रहे हैं। वे यह भी समझ गए हैं कि इंडिया समूह के क्षत्रपों को सिर्फ़ अपने-अपने से लेना-देना है और भारतीय जनता पार्टी की सरकार के कुराज को एकजुट टक्कर देने में उन की कोई बुनियादी दिलचस्पी नहीं है। इसलिए राहुल की तमाम निर्णय-प्रिकयाओं पर अब उन की ‘एकला चलो रे’ की मनःस्थिति का साया साफ़ नज़र आने लगा है।
राहुल का आगामी एकल-सफ़र कांग्रेस के लिए कल्याणकारी साबित होगा या नहीं और प्रतिपक्षी क़दमताल को तालबद्ध करेगा या बुरी तरह बे-ताल बना देगा, यह अभी से कौन जाने? अभी तो सवाल यह है कि राहुल के लिए ये स्थितियां पैदा क्यों हुई हैं? बीस बरस से राहुल के हर तरह के प्रयोगों के लिए अपने को गिनीपिग की तरह पेश करती रहने वाली उन की पार्टी अब उन की प्रयोगधर्मिता से उकताई हुई सी क्यों दिख रही है?
पौने दो साल पहले गाजे-बाजे के साथ षुरू हुए भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन यानी इंडिया एलायंस के जहाज के मस्तूल बिना कोई आंधी-तूफ़ान आए इस तरह चरमरा क्यों गए? नीतीश कुमार की अद्भुत पलटी के बावजूद 37 छोटे-बड़े राजनीतिक दल बड़े अच्छे भाव मन में लिए एक अंगने में इकट्ठे हुए थे, लेकिन उन में से तक़रीबन सभी बारी-बारी बिछड़ क्यों गए?
पहले कांग्रेस की बात कर लें। देश के प्रति कर्तव्यपालन की आड़ में नरेंद्र भाई मोदी की बिछाई जाज़म पर नृत्यलीन कांग्रेसी दिग्गज आज राहुल का सब से बड़ा संकट बने दिखाई दे रहे हैं। राहुल के वर्तमान संदेश प्रसारकों ने एकाधिक बार सोशल मीडिया के ज़रिए खुल कर कहा कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बारे में दुनिया के देशों को भेजे जा रहे सरकारी प्रतिनिधि मंडलों में कांग्रेस के उन सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है, जिन के नामों के सुझाव पार्टी ने भेजे थे।
मतलब साफ था कि जिन कांग्रेसी नेताओं को शामिल किया गया है, उन्हें प्रतिनिधि मंडलों का हिस्सा बनने से मना कर देना चाहिए। अंततः नौबत यहां तक पहुंच गई कि प्रतिनिधि मंडलों में शामिल किए गए कांग्रेसी दिग्गजों से सोशल मीडिया पर बाक़ायदा अपील की गई कि वे जाने-न-जाने का फ़ैसला अपनी ‘अंतआर्त्मा की आवाज़’ सुन कर करें।
मगर शशि थरूर, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी और सलमान खुर्शीद की अंतआर्त्माओं से निकली आवाज़ ने कांग्रेस को झकझोर दिया। मेरी समझ में एक बात नहीं आई कि आख़िर कांग्रेस ने इस मसले को अपने अंतःपुर से बाहर ला कर सड़क और बाज़ार का विषय क्यों बना डाला? अपने तपे-तपाए लोगों को सोशल मीडिया के ज़रिए संबोधित करने के बजाय क्या राहुल या मल्लिकार्जुन खड़गे उन्हें बुला कर सीधे बात नहीं कर सकते थे? इस से फ़जीहत किस की हुई? ठीक है कि नरेंद्र भाई ने अच्छा बहेलिया-जाल बिछाया था और उस में कांग्रेसी दिग्गजों को नहीं फंसना चाहिए था, मगर उस की काट करने की कोशिश क्या इस तरह होनी चाहिए थी?
क्या राहुल अनभिज्ञ थे कि अब भी कांग्रेस में एक बड़ा वर्ग द्वारपालों की चाबुकों से हर रोज़ मिल रहे ज़ख़्म सहलाता घूम रहा है। मैं मानता हूं कि कांग्रेस की मंशा के बावजूद अपने कंधे झटक कर प्रतिनिधि मंडलों का हिस्सा बने नेताओं ने राहुल के प्रति नहीं, उन के दरबारी कु-रत्नों के खि़लाफ़ अपने रोष का इज़हार किया है और अगर राहुल ने ख़ुद ही इस मसले का प्रबंधन किया होता तो कांग्रेस की यह छीछालेदर नहीं होती।
मैं जानता हूं कि जातिगत जनगणना के मुद्दे को ले कर भी कांग्रेस का एक अच्छा-ख़ासा वर्ग राहुल से असहमत है। यह वर्ग मानता है कि इस से कांग्रेस को कोई व्यावहारिक लाभ नहीं होगा। जो फ़ायदा होगा, वह क्षेत्रीय दलों को होगा, क्षेत्रीय क्षत्रपों को होगा और भारतीय जनता पार्टी को भी इसलिए कोई नुकसान नहीं होगा कि आखि़कार उस ने भी यह मुद्दा हड़पने का क़दम उठा डाला।
जातिगत जनगणना के मसले को बुनियादी तौर पर सिद्धांततः सही मानने को भी यह वर्ग तैयार नहीं है। उस का कहना है कि जातिगत जनगणना कराने के लिए दिन-रात एक कर देने वाले राहुल की अवधारणा से कांग्रेस को होने वाले नफ़े-नुकसान का पता तो बिहार विधानसभा के आने वाले चुनावों के नतीजों से ही चल जाएगा। सो, कांग्रेस के भीतर अपनी दांडी-यात्रा तक़रीबन अकेले ही पूरी करने को राहुल फ़िलहाल तो अभिशप्त ही दिखाई दे रहे हैं।
अब आइए भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन से कांग्रेस यानी राहुल गांधी के ताजा समीकरणों की दशा पर। इंडिया समूह अब न तो राष्ट्रीय रह गया है, न विकासशील है, न समावेशी रह गया है और सच्चाई तो यह है कि अब वह कोई गठबंधन है ही नहीं। कांग्रेस के अलावा उस के बाकी 36 राजनीतिक दलों में से लगभग सभी अपना-अपना तंबूरा ले कर अपना-अपना राग बजा रहे हैं।
तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी शुरू से ही ‘पल मे तोला, पल में माशा’ मुद्रा में थीं। आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी आरंभ से दोनों पलड़ों में अपने पैर रखे हुए थे। शरद पवार राजनीतिक भरतनाट्यम की इतनी मुद्राओं में पारंगत हैं कि उन की अगली छटा का अंदाज़ लगाना किसी के भी वश में कभी नहीं रहा।
समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और राष्ट्रीय जनता दल के लालू-तेजस्वी यादव अभी राहुल के पीठ पीछे किसी से नैनमटक्का करते रंगे हाथ पकड़े तो नहीं गए हैं, लेकिन दोनों ही बीच-बीच में दबे क़दमों से छत पर जाते, पता नहीं क्यों, नज़र आते हैं? बिहार में राहुल-तेजस्वी के बीच चुनावी तालमेल की ऊपरी परत के भीतर कितनी दरारें हैं, अभी भले ही उन्हें गिनना मुमक़िन न हो पाए, मगर सितंबर आते-आते यह साफ़ हो जाएगा कि दोनों के मन उस तरह घुले-मिले हुए नहीं हैं, जो चरम-चुनौतियों का सामना करने के लिए ज़रूरी होते हैं।
मैं तो आश्वस्त हूं कि ऊपर से कांग्रेस-राजद भले ही एक होने का दिखावा करें, बिहार के इस चुनाव में राजद का वोट कांग्रेस की तरफ़ नहीं बहेगा। सो, मुझे फ़िक्र है कि राहुल के अवच्छिन्न और एकांतिक होते जाने से अगर कांग्रेस को जीवनीशक्ति नहीं मिली तो भारत का भावी प्रतिपक्षी आसमान कैसा होगा?
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