राजनीति में संघर्ष करना पड़ता है। स्टालिन को कितना इंतजार करना पड़ा। जयललिता के रहते हुए उनके संघर्ष लगातार चलते रहे। सत्तर के होने से दो तीन साल पहले ही वे मुख्यमंत्री बन पाए। और अब विपक्ष की राजनीति में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। और तमिलनाडु के वे एकमात्र बड़े नेता हैं। पक्ष विपक्ष दोनों जगह।
शोले फिल्म का डायलाग राजनीति में बिल्कुल सही साबित हो रहा है। जो डर गया समझो वह मर गया! वहां भी मरने से मतलब मरना नहीं था। यहां भी नहीं है। कोई हैसियत न रह जाना। निपट जाना। या जैसे गांव कस्बों में कहा जाता है धरती पर बोझ समान! राहुल गांधी ने दिल्ली चुनाव में अरविन्द केजरीवाल पर जो सबसे बड़ा हमला किया था वह यही था कि विपक्ष के नेताओं में नरेंद्र मोदी से जो सबसे ज्यादा डरते है वह अरविंद केजरीवाल हैं।
राहुल खुद किसी से नहीं डरते। और इसलिए उनके इस विषय में कहने का असर होता है। राहुल का जो केन्द्रीय गुण या ताकत मानी जा सकती है वह उनका किसी भी परिस्थिति में नहीं डरना ही है। और इसलिए उनके खिलाफ इतना माहौल बनाया गया, इतने मुकदमे लादे गए, लोकसभा की सदस्यता छीनी गई, मकान लिया गया, एसपीजी हटाई गई, सड़क पर पुलिस से धक्का दिलवाकर गिरवा दिया गया।
क्या नहीं हुआ? मजाक उड़ाने के लिए पप्पू, बाबा नाम प्रचारित किए गए। खुद राहुल ने कहा कि उनकी छवि खराब करने के लिए हजारों करोड़ों रुपए खर्च किए गए। मगर चूंकि राहुल डरे नहीं, प्रधानमंत्री मोदी के सामने हमेशा डट कर खड़े दिखे तो आज हर जगह एक ही बात कही जाती है कि मोदी का अगर कोई मुकाबला कर सकता है तो वह राहुल गांधी ही हैं। और यह बात खुद मोदी जी भी जानते हैं इसलिए वे हर जगह हर विषय पर राहुल और उनके परिवार पर आरोप लगाते रहते हैं। वह तो डायरेक्ट उन्हें महाकुंभ में लगे महा जाम का बचाव नहीं करना है नहीं तो वे इसके लिए भी नेहरू को दोषी करार देते।
अभी भगगड़ में हुई मौतों के बाद वे नेहरू के समय कुंभ में हुई भगदड़ की कहानी बता चुके हैं। अदालतों में तो यह नहीं चलता मगर जनता को बेवकूफ बनाने के लिए प्रतिक्रियावादी नेता हमेशा यह तर्क देते हैं कि क्या पहले नहीं हुआ था? मतलब अगर पहले हुआ था तो हमारे समय होना जायज है।
नरेंद्र मोदी के इन्हीं बिलो द बेल्ट ( नियमों सिद्धांतों के खिलाफ) हमलों और विन्डिक्टिव ( नफरत बदले के भावना से) राजनीति के कारण सिर्फ नेता ही नहीं संवैधानिक संस्थाएं तक डर गई हैं। राहुल ने कहा था इसीलिए कि उनकी लड़ाई सिर्फ भाजपा और संघ से नहीं है। हमें इंडियन स्टेट से भी लड़ना पड़ रहा है। राहुल की यह बात अब मोदी बार बार दोहराते हैं कि राहुल भारत से लड़ने की बात कर रहे हैं।
दरअसल राहुल ने कहा था कि सभी संवैधानिक संस्थाओं पर मोदी ने कब्जा कर लिया है। हमें उनसे भी लड़ना पड़ रहा है। इन्डियन स्टेट मतलब सरकार और उसकी ऐजेन्सियां। ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स वगैरह। और संस्थाओं न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया, संसद में पीठासीन अधिकारियों के पक्षपात पूर्ण रवैये से।
निश्चित ही रूप से यह लड़ाई बहुत कठिन है। और इसे लड़ना बहुत साहस का काम। राहुल ने यहां तक कहा कि जब तक मैं जिन्दा हूं किसी भी हिन्दुस्तानी पर आक्रमण होगा चाहे वह किसी भी धर्म का हो हिन्दु हो मुसलमान हो सिख हो ईसाई हो किसी भी जात का हो दलित हो पिछड़ा हो राहुल वहां उसकी रक्षा करता मिलेगा। और राहुल ने यह भी कहा कि यह आज की बात नहीं मेरी पूरी लाइफ की राजनीति देख लेना।
बिल्कुल सही। राहुल की पूरी राजनीति ऐसी ही है। बेखौफ। इसलिए जब वे अपने किसी समकालीन नेता के लिए कहते हैं कि वह डरता हो तो असर होता है। केजरीवाल, मोदी के डर से ही दलितों की बात नहीं कर पाए, पिछड़ों की नहीं कर पाए।
राहुल की मांग आरक्षण के पचास प्रतिशत के केप को हटाने की बात तो बहुत बड़ी है कभी आरक्षण के समर्थन में नहीं बोला। जाति गणना के पक्ष में नहीं बोले। जहां उनके मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे वहां उनका प्रचार करने नहीं गए। वे केवल भाजपा की कार्बन कॉपी बने रहे। और जनता ने कार्बन कॉपी को ठुकरा दिया। मूल कॉपी के साथ चली गई।
डर खत्म करना बहुत जरूरी है। राजनीति में जनता खुद नेताओं से अभय दान चाहती है। अपने डर को दूर करने के लिए ही तो वह समूह में आती है। और फिर उसका नेतृत्व चाहती है। अगर नेता खुद ही डर जाएगा तो जनता उसके पीछे क्यों लगेगी? मायावती को जनता ने बिल्कुल छोड़ दिया। दिल्ली चुनाव में उसके 50 से ज्यादा उम्मीदवार हजार से भी कम वोट ला पाए। कभी कहा जाता था कि बसपा का टिकट किसी को भी मिले दस बीस हजार से तो उसकी गिनती शुरू होती है। लेकिन दिल्ली क्या खुद मायावती के राज्य उत्तर प्रदेश में लोकसभा में उनकी एक सीट नहीं। 2022 विधानसभा में 403 सीट में से उनकी केवल एक सीट आई थी। वह
भी मायावती की वजह से नहीं जीतने वाले उमाशंकर सिंह का अपना असर था। मायावती सबसे ज्यादा डर में हैं। परिणाम कांशीराम की वह पार्टी भुगत रही है जिसमें कभी नारा लगता था “ चढ़ गुंडन की छाती पर मोहर लगाना हाथी पर! “ बीच बाजार में बसपा का दलित चौड़ी छाती करके यह नारा लगाता था। मगर आज गोपनीय मतदान में भी वोट नहीं डाल रहा। दिल्ली में कुछ सीटों पर तो सौ के करीब वोट आए हैं।
दूसरी तरफ यूपी के एक दूसरे नेता को देखें! अखिलेश यादव डर से निकल गए। आज चाहे यूपी की योगी सरकार या केन्द्र की मोदी सरकार अखिलेश सबसे कड़े हमले कर रहे हैं। और इसी निर्भयता का परिणाम है कि चाहे 2024 की लोकसभा हो या 2022 की विधानसभा जनता उनके साथ खड़ी हुई। लोकसभा में 37 सीटें
यूपी में नंबर वन और विधानसभा 111 सीटें दीं।
अखिलेश के बारे में भी यह प्रचार किया गया कि उन्होंने समझौता कर लिया। डर गए। खासतौर से तब जब मुलायम सिंह यादव को पद्म विभुषण दिया गया। लेकिन अखिलेश इस बात को समझ गए कि मोदी के साथ जाकर उन्हें एक सुरक्षा के अहसास के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। और जाने में सपा की सारी राजनीति खतम हो जाएगी। उन्होंने सपा की राजनीति बचा ली। और खुद का कद आज इतना बड़ा कर लिया कि जब वे लोकसभा में बोलते हैं तो पक्ष विपक्ष सब उन्हें ध्यानपूर्वक सुनते हैं।
राजनीति में निर्भयता में ही वह चीज है जिसने लालू यादव को इतने मुकदमे जेल के बाद आज भी प्रासंगिक बनाए रखा। इसी साल बिहार में चुनाव हैं। सबसे ज्यादा चर्चा उनकी उनकी पार्टी राजद की और तेजस्वी की है।
राजनीति में संघर्ष करना पड़ता है। स्टालिन को कितना इंतजार करना पड़ा। जयललिता के रहते हुए उनके संघर्ष लगातार चलते रहे। सत्तर के होने से दो तीन साल पहले ही वे मुख्यमंत्री बन पाए। और अब विपक्ष की राजनीति में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। और तमिलनाडु के वे एकमात्र बड़े नेता हैं। पक्ष विपक्ष दोनों जगह। डरो मत! राहुल का यह मंत्र ही मोदी युग में खुद को बचाए रखने का सबसे बड़ा हथियार है। जनता के मन का डर ऐसे ही दूर होगा। जब नेता निर्भय हों।
अगर नेता खुद डरे हुए होंगे तो जनता और ज्यादा होगी। इसलिए राहुल का ग्राफ कभी गिरता नहीं। वे लोगों की उम्मीदों का केन्द्र बने रहते हैं।