वे प्रत्येक युग में भगवद्भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोककल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। वे भक्ति तथा संकीर्तन के आद्य आचार्य हैं। वे हाथ में भगवन जप महती नामक वीणा धारण कर वीणा वादन करते हुए मुख से सदैव नारायण नारायण का विष्णुनाम जपा करते हैं। मान्यतानुसार वीणा का आविष्कार भी नारद ने ही किया था।
14 मई -नारद जयंती
धर्म के प्रचार तथा लोक कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहने वाले भगवान विष्णु के अनन्य भक्त देवर्षि नारद मानव सृष्टि के आदिकाल से ही सभी युगों में, सभी लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में स्मरणीय, पूजनीय, नमनीय, वंदनीय व प्रशंसनीय बने हुए हैं। ऋग्वेद, अथर्ववेदादि वैदिक साहित्य, ऐतरेय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिता, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियां सर्वत्र नारद की महिमा के बखान भरे पड़े हैं। ऋग्वेद अष्टम व नवम मंडल के कई सूक्तों के द्रष्टा नारद हैं। पौराणिक मान्यताओं में नारद ब्रह्मा के छः मानस पुत्रों में से छठे हैं। अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, मरीचि, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, तथा दक्ष नारद के भ्राता हैं।
श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार सर्वप्रथम नारद मुनि का प्राकट्य भगवान ब्रह्मा की गोद से हुआ था। कतिपय स्थानों पर उनके ब्रह्मा की जंघा से उत्पन्न होने का उल्लेख है। जिसके कारण वे समस्त लोकों में ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में प्रतिष्ठित हुए। ब्रह्मवैवर्त पुराण में नारद मुनि का प्रादुर्भाव ब्रह्मा के कण्ठ से होने का वर्णन अंकित है।
उनके अन्य नाम देवर्षि, ब्रह्मनंदन, वीणाधर आदि हैं। इनकी समस्त लोकों में अबाधित और अव्याहत गति है। ये ब्रह्ममुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं। वे अजर-अमर हैं। गौर वर्णीय नारद अपनी देह पर समस्त वैष्णव चिह्न धारण करते हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया। वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं।
वे प्रत्येक युग में भगवद्भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोककल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। वे भक्ति तथा संकीर्तन के आद्य आचार्य हैं। वे हाथ में भगवन जप महती नामक वीणा धारण कर वीणा वादन करते हुए मुख से सदैव नारायण नारायण का विष्णुनाम जपा करते हैं। मान्यतानुसार वीणा का आविष्कार भी नारद ने ही किया था।
वे स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। वे भगवान की अधिकांश लीलाओं में उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक तो माने ही जाते हैं, साथ ही वे भगवान विष्णु के तृतीय अवतार भी हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इन्हें वेदों के संदेशवाहक, देवताओं के संवादवाहक और समाचार के देवता के रूप में भी पौराणिक मान्यता प्राप्त है।
नारद मुनि कथाशास्त्र, संगीत, योग और भक्ति मार्ग के ऐसे प्रथम प्रचारक थे, जिन्होंने संवाद को अध्यात्म में एक विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया। नारद योगी नहीं, अनुग्रही थे। नारद मुनि ने वीणा को केवल वाद्य नहीं, बल्कि ध्वनि की साक्षात आराधना माना। नारद शब्द दो शब्दों के योग से बना है- नार और द, जिसमें नार का अर्थ है जल, ज्ञान और द का अर्थ है- देने वाला। अर्थात जो भावों में डूबा कर ज्ञान देता है। महाभारत और नारद पुराण के अनुसार नारद योग अथवा तप से नहीं, ईश्वर की अनुग्रह शक्ति से ब्रह्मज्ञानी बने।
उन्हें अपने पूर्व जन्म में एक दासीपुत्र के रूप में हरिभक्तों की सेवा का पुण्य मिला था। वेदों में नारद को शब्द के माध्यम से चेतना को जागृत करने वाला कहा गया है।- नारदः संवादधारीः। अर्थात -नारद वही हैं, जो संवाद को साधना बनाते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार नारद की वाणी में त्रिगुणों अर्थात सत्त्व, रज, तम के अनुरूप तीन स्तर की ध्वनियां होती थीं। जिसके कारण वे हर प्राणी के अनुसार संवाद करते थे। यही कारण है कि वे स्वर्ग, पाताल और मृत्यु लोक तीनों में सुने जाते हैं।
नारद जयंती पर जानिए उनका योगदान
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार नारद मुनि गुप्त शास्त्रों के रचयिता थे। गंधर्व तंत्र, संगीत शास्त्र संहिता आदि ग्रंथों के अनुसार नारद ने ध्वनि तंत्र नामक एक रहस्यमय ग्रंथ की रचना की थी, जो अब लुप्त है। कहा जाता है कि उसमें मंत्र, राग और मन के संयोग से ईश्वर साक्षात्कार की विधि बताई गई थी।
उन्होंने नारद पांचरात्र, नारद भक्ति सूत्र, नारद पुराण, नारद स्मृति नामक शास्त्रों का भी सृजन किया है। नारद के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाले प्रसंग के रूप में चर्चित महाभारत के सभापर्व के पंचम अध्याय के अनुसार देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों अर्थात अतीत की बातों को जानने वाले,
न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकांड विद्वान, संगीत विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं।
अट्ठारह पुराणों में एक नारदोक्त पुराण- बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। उनकी विष्णुभक्ति और उनके विशद गुणों के कारण ही उनका सदैव से ही देवताओं में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। सिर्फ देवताओं ने ही नहीं, बल्कि दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर- सत्कार, नमन- वंदन किया है। आवश्यकतानुसार सभी ने उनसे परामर्श लिया है।
इनका अवतरण इस धरा पर ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को होने की मान्यता होने के कारण इस दिन नारद जयंती मनाई जाती है। पौराणिक ग्रंथों में अंकित नारद संबंधी विवरणियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि नारद जयंती सिर्फ नारद स्मृति दिवस नहीं, बल्कि वाणी शुद्धि साधना के लिए उपयुक्त, उत्तम और शुभ दिन भी है। मान्यतानुसार इस दिन ॐ नारदाय नमः मंत्र का 108 बार जाप करने वाले व्यक्ति को शब्द की शक्ति पर आत्मनिष्ठ अनुभव होता है। तंत्रशास्त्र की परंपरानुसार नारद जयंती पर रात के तीसरे प्रहर में ध्यान करने से नाद योग की अनुभूति सहज होती है।
पौराणिक ग्रंथों में अंकित नारद संबंधी वर्णनों के अनुसार देवर्षि नारद का जन्म विभिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न रूपों में हुआ है। देवर्षि नारद का जन्म सात बार पृथक-पृथक रूपों एवं कालों में हुआ है। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार भगवान विष्णु अपने तृतीय अवतार में देवर्षि नारद के रूप में अवतरित हुए थे।
ब्रह्मा के द्वारा नारद मुनि को सृष्टि रचना के कार्य में सहयोग प्रदान करने की आज्ञा दिए जाने पर नारद ने श्री हरि नारायण की भक्ति के मार्ग का चयन करने की इच्छा प्रकट करते हुए उनकी आज्ञा अस्वीकार कर दी। जिसके कारण कुपित होकर ब्रह्मा ने देवर्षि नारद को गन्धर्व योनि में जाने का श्राप दे दिया। ब्रह्मा के श्राप के कारण देवर्षि नारद के ज्ञान का लोप हो गया तथा वे गन्धर्व योनि को प्राप्त हुए, जिसमें उनका नाम उपबर्हण था, जिसकी एक अलग ही कथा है।
कथाओं के अनुसार ब्रह्मा के श्राप के परिणामस्वरूप नारद का विभिन्न रूपों में जन्म हुआ था, किन्तु अनन्य हरि भक्ति एवं तपोबल के प्रभाव से अन्ततः उन्हें देवर्षि एवं ब्रह्मर्षि आदि दिव्य उपाधियां प्राप्त हुईं। नारद मुनियों के देवता थे। इसीलिए उन्हें ऋषिराज के नाम से भी जाना जाता था। देवर्षि नारद भक्ति के साथ ही ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं।
नारदसंहिता के नाम से विख्यात इनके एक ग्रंथ में ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृत वर्णन मिलने से इसकी पुष्टि होती है। नारदपुराण में लगभग 750 श्लोकों में ज्योतिषशास्त्र पर चर्चा करते हुए ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की विशद व्याख्या की गई है। अथर्ववेद में नारद नामक एक ऋषि हुए हैं।
ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के शिक्षक तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले भी नारद थे। मैत्रायणी संहिता में नारद नामक एक आचार्य, सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य के रूप में नारद का उल्लेख प्राप्य है।
छान्दोग्यपनिषद में नारद का नाम सनत्कुमारों के साथ उल्लिखित है। महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा के क्रम में नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न करने और बाद में उनके द्वारा नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराने का विवरण अंकित है। नारद पंचरात्र के नाम से प्रसिद्ध एक वैष्णव ग्रंथ में दस महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गई है। इन कथाओं में हरि का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है।
कुछ स्मृतिकारों ने नारद का नाम सर्वप्रथम स्मृतिकार के रूप में माना है। श्रीमद्भागवत और वायुपुराण में देवर्षि नारद का नाम दिव्य ऋषि के रूप में भी वर्णित है।
व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु देवर्षि नारद ने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। भागवत धर्म के परम गूढ़ रहस्य के ज्ञाता -ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम नारद का मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिए ही है। ऐसे ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भंडार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी देवर्षि नारद को उनकी जयंती पर कोटिशः नमन।
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