पत्रकारिता सरल नहीं है, आसान नहीं है, कभी भी नहीं थी। आप कोई समाचार देते हैं, तो धमकियां मिलती हैं। आलोचना होती है साथ ही नाममुकिन भी नहीं जो आप पर देशद्रोही का लेबल चस्पा कर दिया जाए। पत्रकार हमेशा से आसान निशाना रहे हैं। लेकिन एक समय पत्रकार का मान था, उन्हे नेक और श्रेष्ठ व्यक्ति माना जाता था। एक समय था जब पत्रकारों को भरोसेमंद माना जाता था। हर व्यक्ति प्रतिदिन हिम्मती अखबारों को पढ़ता था और टीवी पर भय और बंदिशों से मुक्त खबरें देखता था। जब नागरिकों को राजनीति से जुड़े फैसले लेने होते थे तो मीडिया से जीवंत रिश्तों के चलते यह सुनिश्चित होता था कि उन्हें उससे संबंधित गहन जानकारी हो, भले ही वे सदैव इस बात पर सहमत न हों कि क्या किया जाना चाहिए, या किसे वोट दिया जाना चाहिए। लेकिन वे तथ्यों के विश्वसनीय होने पर भरोसा कर सकते थे।
लेकिन अब यह सब बदल गया है। अखबार बौने हो गए हैं, लोगों ने टीवी पर खबरें देखना बंद कर दिया है और नकारात्मक खबरों का बोलबाला हो गया है। स्क्राल करते समय अंगुली उस वीडियो पर रूक जाती है जो या तो आपको हंसाते है या गुस्से से भर देते हैं। हाथ और दिमाग दोनों सुन्न हो जाते हैं और आप बेबुनियाद ख़बरों पर भरोसा करने लगते हैं, अपने ही हितों के खिलाफ काम करने लगते हैं। खबरों और नज़रिए का फर्क मिट गया है, गलत जानकारियों का बोलबाला है। आखिर हम उस दौर में जी रहे हैं जिसमें वही सच है जिसे हम सच मानते हैं।
मीडिया भी देश की तरह खंडित है और उसका क्षय हो रहा है। समय के साथ कई संस्थानों में गिरावट आई है किंतु मीडिया की स्थिति बहुत ही ज्यादा बिगड़ गई है। प्रेस को खरीद लिया गया है, उसका कोरपेरेटीकरण हो गया है। खबरें तोड़ी-मरोड़ी जाने लगीं और आपके मत को कुचल दिया गया। हाल के वर्षों में जो हिम्मत दिखाता है उस पर मानहानि या आपराधिक मुकदमे लाद दिए जाते हैं। उसे ईश-निंदा का दोषी ठहरा दिया जाता है या जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाता है।
पत्रकार होना अब पहले से बहुत अधिक जोखिम भरा है। मेरे कई पत्रकार मित्रों से उनके संपादक कहते हैं वे ऐसी खबरें लाएं जो उनके और उनके मालिकों के लिए फायदेमंद हों। इसके अलावा, कई मित्र ऐसे हैं जिनसे सरकार के प्रोपेगेंडा को तोते की तरह दुहराने के लिए कहा जाता है। हर चीज का कारपोरेटीकरण हो गया है और वे सरकार के रंग में रंग गईं हैं। आईपेड लिए गंजे मर्द और पावर सूट पहनी महिलाएं समाचार चैनलों पर छाई हुई हैं। हर पत्रकार को 8-9 घंटे आफिस में रहना पड़ता है। संपादक की पूर्व स्वीकृति से किए गए आफिस के बाहर के कार्यों को छोड़कर, शेष सभी को छुट्टी माना जाता है। फोटो पत्रकार से अपेक्षा रहती है कि वह आफिस में रहकर स्क्रीनशाट्स लें और ब्रेकिग न्यूज तभी प्रसारित की जाती है जब वह सरकार के अनुकूल हो। शब्दों और भाषा शैली का अब कोई महत्व नहीं है। और लेखों में प्रचलित शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाना होता है।
स्वयं पत्रकार होने के बावजूद कई बार मैं यह नहीं तय कर पाती कि कौनसी खबर, दरअसल खबर है। दक्षिणपंथी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं। वामपंथी उसकी खिलाफत करते हैं। किस बात को सच माना जाएगा यह प्रायः इस बात पर निर्भर करता है कि संबंधित पत्रकार किस राजनैतिक विचारधारा के निकट है।
इसलिए आज कोई भी सच्चा पत्रकार नहीं है। पत्रकार गायब हो चुके हैं। अब या तो सरकार के पिट्ठू बचे हैं, कारपोरेट्स के गुलाम बचे हैं, एक्टिविस्ट बचे हैं या प्रोपेगेंडा फैलाने वाले तोते। पत्रकारों की तो जरूरत ही नहीं है। सना एआई है न। एक मित्र का मानना है कि यदि वह इस्तीफा देगी तो उसका ऑफिस खुशी-खुशी उसके इस्तीफे को मंजूर कर लेगा क्योंकि एआई बहुत आसानी से उसकी जगह ले लेगा।
प्रेस पर रोकें लगा दी गई हैं या कम से कम उसे रोकने के हर संभव यत्न किए जा रहे हैं। इसके लिए पूरी ताकत लगाई जा रही है।
इस हफ्ते वाशिंगटन पोस्ट के मालिक जेफ बेजोस ने वह किया जो भारत में कम से कम 11 सालों से हो रहा है। जिस व्यक्ति ने 2013 में इस अखबार को इसलिए खरीदा था ताकि उसे आर्थिक तबाही से बचाया जा सके, उसी ने एक सख्त घोषणा करते हुए कहा कि अखबार के ओपिनयन वाले पृष्ठों पर केवल उन विचारों को स्थान दिया जाएगा जो वैयक्तिक स्वतंत्रता‘ और खुले बाजार के समर्थन वाले होंगे। इस घोषणा के बाद अखबार के शीर्ष ओपिनयन संपादक डेविड शिपले, जो इन प्रतिबंधों के पक्ष में नहीं थे, ने तुंरत इस्तीफा दे दिया। और उन्होंने ठीक ही किया।
यह खबर धक्का पहुंचाने वाली थी और इससे यह स्पष्ट हो गया कि बेजोस एक स्वतंत्र समाचार माध्यम के स्वामी बने रहना नहीं चाहते। वे एक भोंपू, एक राजनैतिक औजार चाहते हैं जो उनके व्यापारिक हितों के लिए फायदेमंद हो।
फेसबुक के मालिक मेटा और एबीसी न्यूज ने मानहानि के प्रकरणों में अदालत के बाहर समझौते करते हुए ट्रंप को दसियों लाख डालर का भुगतान किया है और राष्ट्रपति अभी भी सीबीएस न्यूज के खिलाफ एक मुकदमा लड़ रहे हैं जिसमें 10 अरब डालर के मुआवजे की मांग की गई है। यह मुकदमा 60 मिनिट्स कार्यक्रम में प्रसारित कमला हैरेस के एक साक्षात्कार के कथित भ्रामक संपादन से संबंधित है। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में व्हाईट हाउस पर प्रेस की स्वतंत्रता से छेड़-छाड़ करने का आरोप लगाया जा रहा है क्योंकि यह घोषणा कर दी गई है कि किन पत्रकारों और समाचार संस्थानों को ट्रंप से निकट से संवाद करने दिया जाएगा, यह व्हाईट हाउस तय करेगा। पहले प्रेस पूल के बारे में फैसला व्हाइट हाउस संवाददाता संघ नामक एक स्वतंत्र संस्था लेती थी।
सारी दुनिया में लोकलुभावनवादी नेता प्रेस की जुबान पर लगाम लगाने में जुटे हुए हैं। वे बार-बार मीडिया को आवाम का दुश्मन बताते हुए उसे निशाना बना रहे हैं। मीडिया की विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है। और जो थोड़ी-बहुत बची थी – कम से कम भारत में – वह भी पत्रकारों के मुजरा करने के बाद खत्म हो गई है।
यह जितना चिंताजनक है, उससे अधिक दुखद है। लोकतंत्र अंधेरे में घिरता जा रहा है, मरता जा रहा है। लोकतंत्र के झंडाबरदारों ने अपनी आंखें बंद कर ली हैं क्योंकि पत्रकारों ने खुशी-खुशी भविष्य के तानाशाह का हथियार बनना मंजूर कर लिया है। उस व्यक्ति की गुलामी करना स्वीकार कर लिया है जो अपने आलोचकों को डराने का प्रयास करता है, स्वयं की जांच-पड़ताल से बचता है और उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था को धीरे-धीरे खत्म करने में जुटा हुआ है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)