एसआईआर की जरूरत एवं उसके औचित्य पर कोई सवाल नहीं है। मुद्दा वो माहौल है, जिसमें इसे आगे कराया जा रहा है। निर्वाचन आयोग के हठ के कारण सवाल और संदेहों से भरा ये माहौल आगे भी जारी रहने वाला है।
निर्वाचन आयोग ने 12 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण (एसआईआर) की प्रक्रिया शुरू कर दी है, लेकिन इसके पहले विपक्ष की आपत्ति और शिकायतों पर गौर करने की जरूरत उसने नहीं समझी। बेशक, बिहार की तुलना में अब अपनाई जा रही प्रक्रिया में कुछ सुधार किए गए हैं। बिहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्देश दिए, 12 राज्यों की एसआईआर प्रक्रिया में उन्हें शामिल कर लिया गया है। लेकिन उल्लेखनीय है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला नहीं आया है। उधर कर्नाटक में संगठित रूप से मतदाताओं के नाम हटाने के मामले की चल रही एसआईटी जांच से संबंधित प्रक्रिया भी अपने अंजाम तक नहीं पहुंची है।
इन सबसे अप्रभावित रहते हुए एसआईआर को आगे बढ़ाने का निर्णय विपक्षी दलों में नए संदेह को जन्म दे चुका है। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, सीपीएम आदि की प्रतिक्रियाएं इसकी मिसाल हैं। समस्या निर्वाचन आयोग का जाहिर होने वाला नजरिया है, जिससे नहीं लगता कि वह विपक्ष को चुनाव प्रक्रिया में समान हितधारक मानता हो! विपक्ष के एतराज को जैसे वह ठेंगे पर रखता है। विपक्ष की शिकायतों पर निष्पक्ष रेफरी की भूमिका अपनाने के बजाय अतीत में वह एक पक्ष बनता नजर आया है। उसके इस रुख का गहरा साया भारतीय चुनावों पर पहले ही पड़ चुका है।
इसकी मिसाल बिहार है, जहां विधानसभा चुनाव में भाग लेने के बावजूद विपक्षी नेता नई मतदाता सूची को लेकर संदेह जताते और चुनाव प्रक्रिया के स्वच्छ रहने को लेकर आशंका जताते सुने गए हैं। निर्वाचन आयोग चाहता तो इससे सबक लेते हुए ताजा घोषणा से पहले 12 राज्यों में हित रखने वाले तमाम दलों के साथ संवाद कायम कर सकता था। उससे भरोसे का माहौल बनता, जिससे ये प्रक्रिया बिना विवादास्पद हुए आगे बढ़ती। गौरतलब है कि एसआईआर की जरूरत एवं उसके औचित्य पर कोई सवाल नहीं है। मुद्दा उसे कराने का तरीका और वो माहौल है, जिसमें इसे आगे बढ़ाया जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि निर्वाचन आयोग के हठ के कारण सवाल और संदेहों से भरा ये माहौल आगे भी जारी रहने वाला है।


