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01-08-2025 Vol 19

डॉ हेडगेवार और रा. स्व. संघ: कहाँ से चले, और कहाँ पहुँचे? (2)

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चाहे आज पूरे देश पर उन के स्वयंसेवकों की सत्ता क्यों न हो! पर वे आज भी मानो बचकर, छिपकर, अंतर्विरोधी, दोमुँही बातें बोलकर ही सब कुछ करते हैं।..अंदर कुछ, बाहर कुछ, तथा कुछ छिपा कर, अधूरी बात बताकर काम करना और लेना मानो उन का स्वभाव बन चुका है। …उन के नेता, केवल चलते-चलाते जुमले बोलकर निकल जाते हैं, अब समय बदल गया है या यह/वह संभव नहीं है, आदि।…वीर सावरकर ने इस सबको समझ कहा था कि किसी स्वयंसेवक की समाधि पर एक ही अभिलेख होगा: “उस ने जन्म लिया; वह आर.एस.एस. में आया; वह मर गया।…संघ के नौ दशकों का यह आकलन अधिक सही है कि संघनिरर्थक हीनहीं, हिन्दुओं के लिए भ्रामक, अतः हानिकारक सिद्ध हुआ है।

[7] डॉ. हेडगेवार ने अपने संघ और ‘संघ-कार्य’ को सुरक्षित बचाए रखने – अंग्रेजों से, और अन्य राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग से भी – के लिए कुछ अंदर-बाहर दो समान सी नीति रखी (पृ.203, 215, 353, आदि)। वह बनाव-छिपाव कुछ न कुछ अंदरूनी सांगठनिक व्यवहार तक में आना ही था। किन्तु यह दोहरापन, अस्पष्टता, और मिथ्याचार तक संघ नेताओं में स्थाई रूप से जम गया। चाहे आज पूरे देश पर उन के स्वयंसेवकों की सत्ता क्यों न हो! पर वे आज भी मानो बचकर, छिपकर, अंतर्विरोधी, दोमुँही बातें बोलकर ही सब कुछ करते हैं। चाहे उन के अनेक काम साधारण, निरापद, या रुटीन ही क्यों न हों। परन्तु अंदर कुछ, बाहर कुछ, तथा कुछ छिपा कर, अधूरी बात बताकर काम करना और लेना मानो उन का स्वभाव बन चुका है।

संघ नेता न केवल दूसरों, बल्कि अपने कार्यकर्ताओं, बराबर के संघ/भाजपा सहयोगियों से भी विश्वसनीय व्यवहार रखते नहीं लगते हैं। चौतरफा शक-संदेह, अस्पष्टता मानो उन का दूसरा चरित्र है। यह उन के सार्वजनिक और आपसी बर्ताव से भी झलकता है। वे अपने भी किसी नेता पर भरोसा नहीं करते। इसीलिए अपना कोई आधिकारिक प्रवक्ता तक नहीं रखते, जो किसी विषय, घटना, आदि पर संघ का दृष्टिकोण रख सके। ताकि लोग सही जान सकें। केवल एक बार संघ ने अपना घोषित प्रवक्ता बनाया था, जो एक जानकार, विनम्र, वाकपटु, कूटनीतिक व्यक्ति हैं। किन्तु बाद में यह पद ही खत्म कर दिया गया। क्या उन्हें अपने भी योग्यतम लोगों पर भरोसा नहीं कि वे संघ को सही प्रस्तुत करेंगे? या फिर, वे किसी विषय पर अपना कोई जिम्मेदार रुख रखना ही नहीं चाहते! जब जैसी बयार, वैसी पीठ कर, अस्पष्ट, अंतर्विरोधी भंगिमाओं से मात्र लाभ उठाते रहना चाहते हैं।

[8]क्या यह – कोई प्रमाणिकता या कसौटी न रखना–भी डॉ. हेगडेवार की विरासत है, अथवा बाद में आई प्रवृत्ति? ऊपर, सातवाँ बिन्दु देखें तो एक रूप में इस का आरंभ डॉ. हेडगेवार ने ही किया, जब वे किसी नापसंद, किन्तु नाजुक बात पर स्वयंसेवकों को साफ मना करने के बदले घुमा-फिरा कर स्वयं समझने की दिशा में डालते थे। जैसे, कांग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन कार्यक्रमों में भाग लेना या न लेना। इस अस्पष्टता का तब चाहे जो लाभ हुआ, बाद में इस से संघ नेताओं में एक दोहरापन पनपता गया। इस में ‘चित भी मेरी, पट भी’ अथवा ‘साँप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे’ की मंशा झलकती है।

किन्तु इस का दूसरा पहलू भी है: स्वयं अपने को कसौटी-विहीन, यानी निराधार बना लेना। जिस से स्वयं संघ नेता भी तय नहीं कर सकते कि उन के संगठन, या स्वयं उन्होंने कुल मिलाकर उन्नति की या अवनति? इस का निर्धारण किसी कसौटी पर ही हो सकता है, जो उन्होंने कभी तय ही नहीं की। जिस से अपने किसी नेता या ईकाई का मूल्यांकन कर सकें।

संघ के नेता केवल अपनी संख्या, संसाधन, कब्जे की कुर्सियाँ बढ़ाते जाना ही मुख्य काम मानते हैं। पर केवल बढ़ते जाना कहीं पहुँचने का विकल्प नहीं होता। ढेरों स्थान, साधन हासिल कर लेना किसी काम की कसौटी नहीं है। वह केवल कच्ची सामग्री जमा करना है, कोई निर्माण नहीं है। बल्कि उसी सामग्री से अनायास कोई निरर्थक, या हानिकारक निर्माण भी होजा सकना है। जैसे, उन के ‘मुस्लिम मंच’ जैसे अनेक संगठन जो कर रहे हैं, वह हिन्दू या राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकर हैं। स्वयं डॉ. हेडगेवार के विचारों के अनुसार भी अनुचित है। तब यह सब कैसे चल रहा है?क्योंकि संघ के पास सही काम की परख-पहचानकी कोई कसौटी ही नहीं। अपनी भी नहीं बनाई, सामान्य विवेक या हिन्दू शास्त्रीय, मनीषियों की दी गई कसौटियाँ स्वीकारना तो दूर रहा।

उन के नेता, केवल चलते-चलाते जुमले बोलकर निकल जाते हैं, ‘अब समय बदल गया है’ या ‘यह/वह संभव नहीं है’, आदि। किन्तु डॉ. हेडगेवार के समय से क्या बदल गया है? या क्या संभव नहीं है?इस पर उन का कोई सुविचारित प्रस्ताव, और संभवतः कोई आपसी विमर्श भी नहीं है। अतः यह सामूहिक आत्म-छलना है। मानो संघ नेता आपस में भी एक दूसरे को बहलावे दे रहे हों, ताकि न कोई प्रश्न उठे, न संदेह। कुछ इस अंदाज में कि ‘हम जो कर रहे हैं उस मेंविसंगति भी हो, तब भी कोई समस्या नहीं है, हम उन्नति कर रहे हैं’, आदि। चूँकि बुनियादी मुद्दों, समस्याओं पर उन का कोई आधिकारिक दृष्टिकोण प्रकाशित नहीं है, इसलिए संघ स्वयंसेवक अपनी-अपनी अटकल से मनमर्जी व्याख्याएं देते रहते हैं –चाहे वह उन के नेताओं के विचित्र बयान/क्रियाकलापहों, या चुप्पियाँ। तब स्वभाविक है कि उन अटकलोंमें एक-दूसरे को काटने वाली, मनगढ़ंत, यहाँ तक की झूठी बातें भी होंगी।

यह किसी सामाजिक संगठन के लिए असामान्य रूप से भीरु और लज्जास्पद है। कि वह अपने ही कार्यों की कोई जिम्मेदार व्याख्या न दे सके। या नकली, हवाई बातें कहे। इसे वे चाहे चतुराई मानते रहें, किन्तु इस से केवल दुर्बलता झलकती है। जिस का फायदा हिन्दुओं के शत्रु उठाते हैं (जैसे, उन की ही नकली बातों पर ब्लैकमेल करके)। फलस्वरूप भाजपा-संघ के अधिकांश सांसद, विधायक, निचले पदाधिकारी भी किसी मसले या घटना पर अपने दल-संगठन की नीति, या पिछले/आगामी क्रियाकलापों पर शायद ही स्पष्ट रहते हैं। पूछने पर भी नहीं बता पाते। यह उन्हें दुर्बल, आत्मविश्वासहीन नेता बनाता है। ऐसा दल या संगठन कठिन या आकस्मिक परिस्थितियों से निपटने में सदैव अयोग्य सिद्ध होता है। इसे विविध प्रसंगों में देखा भी जाता रहा। हिन्दू समाज के लिए हर महत्वपूर्ण मोड़ या संकट स्थिति में, गायब, चुप या प्रभावहीन रहने पर संघ कार्यकर्ता केवल सफाई देते, और दूसरों पर दोष मढ़ते ही मिलते हैं। कहीं-कहीं संघ कार्यकर्ताओं द्वारा ‘व्यक्तिगत रूप से’ किए गए कामों की आड़ लेते हैं। मानो, इस से किसी गंभीर मामले में संगठन के रूप में उन की शून्य भूमिका की कैफियत हो गई।

[9] पूरी पुस्तक पढ़कर, तथा आज के हालात से मिलान कर यही लगता है कि डॉ. हेडगेवार ने संघ को जो मानसिकता दी, और आरंभिक चौदह-पंद्रह वर्षों तक स्वयं उसे प्रशिक्षित करते हुए देश के कई भागों में फैलाया, वह काम सदा अपूर्ण रहना ही था। यह वीर सावरकर ने बहुत पहले देख लिया, जब कहा था कि किसी स्वयंसेवक की समाधि पर एक ही अभिलेख होगा: “उस ने जन्म लिया; वह आर.एस.एस. में आया; वह मर गया।” अर्थात संघ का होना भर ही काम है, उस का और कोई काम नहीं। बल्कि, अब संघ के नौ दशकों का आकलन करते हुए यह कहना अधिक सही है कि संघ निरर्थक हीनहीं, हिन्दुओं के लिए भ्रामक, अतः हानिकारक सिद्ध हुआ है।

इस का सीधा कारण है कि हिन्दू समाज, अर्थात् उस के चिंतित लोग समझते हैं और उन्हें संघ और शत्रुओं, दोनों द्वारा समझाया भी गया कि संघ के रूप में ‘दुनिया का सब से बड़ा संगठन’ हिन्दुओं के लिए ही है। जबकि वास्तव में संघ केवल अपना, संघ-सदस्यों का संगठन है। आपसी कोऑपरेटिव जैसा, जिस के सदस्यों को कुछ काल्पनिक-वास्तविक, भावनात्मक-भौतिक लाभ मिल सकते हैं, मिलते हैं। वह हिन्दुओं का, हिन्दुओं के लिए संगठन कभी बना ही नहीं! लगभग शुरू से ही उस की दिशा बदल गई। वह ‘संघ का, संघ के द्वारा, संघ के लिए’ संगठन बन कर रह गया। हिन्दू हित-अनहित के संबध में ठोस सवालों पर, संघ के नेता बात-चीत में ठसक से कहते भी हैं कि ‘‘हम ने हिन्दुओं का ठेका नही ले रखा।’’ मानो वे स्वयं हिन्दू नहीं हैं, औरहिन्दू समाज से अलग कोई चीज हैं!(जारी)

शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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