भोपाल। पाँच राज्यों में सत्ता के स्वयंबर के दावेदारों में पूर्व की भांति ना कोई नियम मान्य है और ना ही चुनाव आयोग के निर्देश ! एक ओर सत्ता खुद इसमें दावेदार है तो दूसरी ओर बिना बैसाखी के विरोधी दल..! जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव गुटरेस के बार – बार निर्देशों की इज़राइल और अमेरिका तथा यूरोपियन यूनियन के देश उसी प्रकार न्याय की अवहेलना कर रहे हंै जैसे देवव्रत उर्फ भीष्म पितामह की सलाह को कौरव नकारते रहे..! कुछ वैसा ही इस भारत धरा पर वाचिक रूप से महाभारत लड़ा जा रहा हैं ! इज़राइल ने अमेरिका के गाज़ा में बच्चों और अस्पतालों पर बमबारी पर एतराज़ जताया, तो इज़राइली प्रधानमंत्री नेत्न्याहु ने अमेरिका को हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले की याद दिला दी ! जिसमें लाखों बच्चे और नर – नारी मारे गए थे। इसका मतलब यह हुआ कि इज़राइल विश्व युद्ध मान रहा है हमास के विरुद्ध लड़ाई को। गज़ब है कि म्यूनिख ओलंपिक में जब यहूदी खिलाडि़यों की हत्या हुई थी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्ड मायर ने लेबनान और अन्य राष्ट्रों पर तो हमला नहीं किया था ! उन्होंने केवल हत्या में शामिल आतंकवादियों को खोज –खोज कर मार गिराया था। जनरल आईखमन को अर्जेन्टीना से जब मोसाद द्वारा पकड़ कर के लाया गया था तब भी , इज़राइल के दोस्तना संबंध बरकरार रहे थे। जब यहूदी यात्रियों के हवाई जहाज को अरब आतंकवादियों द्वारा अगवा कर यूगांडा के एनटेबी हवाई अड्डे पर रखा गया था तब भी कोई हमला नहीं किया गया था और अगवा किए गए सभी मुसाफिरों को सकुशल तेल अबिब हवाई अड्डे पर उतार लिया गया था। पूरे प्रकरण में एक इज़राइली अफसर शहीद हुआ था।
तो आज क्या हो गया उस तंत्र को जो निहथे बच्चों और अस्पतालों पर बम गिरा कर अपनी बहादुरी दिखा रहा हैं ? यह वही इज़राइल है जिसने एक साथ मिश्र, सीरिया और लेबनान के संयुक्त हमले का करारा जवाब दिया था.! जिसके फलस्वरूप गाज़ा और वेस्ट बैंक के इलाकों पर कब्जा किया था। जिसको लेकर ही आज तक अशांति है। इज़राइल की स्थापना 1948 में मित्र राष्ट्रों (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस) की कूटनीति और यहूदी अरबपतियों के दबाव में वालफोर संधि के रूप में आई, फलस्वरूप बेघर यहूदियों को उनका देश मिला नाम इज़राइल पड़ा। परंतु इस संधि के पहले यहूदियों ने अपने संबंधों और धन के बल से हथियार और साजो सामान एकत्र कर गाजा पट्टी में बसे अरब बाशिंदों को ज़ोर – ज़बरदस्ती कर के उनके खेतों और घरों पर कब्जा किया। इसलिए जब इज़राइल की सीमा बनाने की बात आई तब उन इलाकों में बाशिंदों की नस्ल के अनुसार फैसला किया गया। एक यहूदी इतिहासकार जो होलोकास्ट के भुक्त भोगी थे, उन्होंने एक किताब में लिखा है कि जब उन्हें जर्मनी से आने के बाद यहूदी अधिकारियों ने उन्हें उनका घर दिखाया तब उसमें अरब बाशिंदे के बर्तन और खून के छीटों भरी दीवार देख कर उन्होंने कहा कि मुझे किसी दूसरे के घर पर कब्जा नहीं करना है। और आखिरकार वे ब्रिटेन चले गए।
तो यह थी इज़राइल की स्थापना की तथा कथा, यहूदियों के तत्कालीन नेता बेन गुरियन ने काफी मेहनत – मशक़्क़त से इज़राइल राष्ट्र की स्थापना कराई थी। उन्होंने मित्र राष्ट्रों के जिम्मेदार नेताओं और अन्य संबंधितों को पाउंड और डालरों से उपकृत किया था , जिसका दोनों राष्ट्रों द्वारा खंडन किया गया। नेत्न्याहु के पहले के नेतृत्व ने अरब आबादी और यहूदी जनों के मध्य शांति संबंधों की पहल की थी। जैसा की पूर्व प्रधानमंत्री बराक ने एक सार्वजनिक बयान में कहा भी है। फिलिस्तीन राष्ट्र के निर्माण को लेकर अमेरिका हमेशा खिलाफ रहा है। जबकि इज़राइल की एक छोटी आबादी इसे समाधान के रूप मे देखती है। आखिर लाखों फिलिस्तीनी नागरिकों को भी तो राष्ट्र चाहिए – जैसे हजारों वर्ष तक यहूदी दर – दर भटकते रहे, क्या यहूदी नेतृत्व अपने श्राप को अरब लोगों पर थोपना चाहता है !
येरूशलम का मुद्दा
फिर एक मुद्दा है तीन धर्मों – यहूदी –ईसाई और इस्लाम के धर्म स्थल येरूशलम का, जहां तीनों ही धर्मों के लोग आराधना करने जाते हैं। अरब लोगों की काफी सालों से शिकायत रही है कि उनके मस्जिद में शुक्रवार की नमाज़ अदा करने में बाधा डालते हंै। अन्तराष्ट्रीय संधि के अनुसार जॉर्डन को यह जिम्मेदारी दी गयी थी कि वह तीनों धर्मों के लोगों की यात्रा और उपासना को निर्विघ्न करने का प्रबंध करेगा। परंतु इज़राइल ने इस व्यवस्था को मानने के बाद भी अपने सैनिकों की तैनाती कायम रखी, फलस्वरूप जॉर्डन के कहने के बाद भी इज़राइली सैनिक उनके निर्देशों को नहीं मानते थे। ऐसा वे अपनी सरकार के अफसरो के इशारे पर ही करते थे। थक-हार कर जॉर्डन ने संयुक्त राष्ट्र संघ को सूचित कर दिया की वह अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर पा रहा है। सुरक्षा परिषद मे मित्र राष्ट्रो ने इन हालातो पर कोई खोज खबर नहीं ली। परिणाम स्वरूप ईसाई और मुसलमान लोगो को इज़राइली सैनिको के दुर्व्यवहार का शिकार होने का सतत अपमान सहना पड़ रहा हैं।
आज हालत यह है की इज़राइल अपने नर संहार की कारवाई को विश्व युद्ध से तुलना कर रहा है , और संयुक्त राष्ट्र संघ की पूरी तरह से अन देखी कर रहा है। यह हालत उसी स्थिति का द्योतक है जैसा की लीग ऑफ नेशन की स्थापना के बाद जर्मनी की जिद के कारण उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया था। क्या विश्व शांति के लिए किसी तीसरे प्रयास की जरूरत है , जिसमे पाँच बड़े राष्ट्रो का वर्चस्व नहीं हो वरन तथ्य और कारणो के आधार पर कोई फैसला हो।