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31-07-2025 Vol 19

जंगल का शेर भी अपने कायदे में रहता है और हम मनुष्य?

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कमाल है कि जंगल का सबसे हिंसक पशु भी अपने अनुशासन की सीमा में रहना जानता है और अपने को सभ्य समाज मानने वाले हम कितने हिंसक हैं कि वाणी से, क्रिया से और विचारों से हमेशा अपने समाज व पर्यावरण के प्रति हिंसा करते रहते हैं। चाहे हमारे ये क्रियाएं आत्मघाती ही क्यों न हों।

शेर बहुत हिंसक प्राणी है, यह हम सभी जानते हैं। मैं, पिछले सप्ताह केन्या के विश्व प्रसिद्ध मसाई मारा वन्य अभ्यारण्य में था। खुली जीप में घूमे। सबसे रोमांचक क्षण वह था जब हमारी जीप के तीन तरफ़ चार पाँच बब्बर शेर व शेरनी बैठे थे। उनसे हमारी दूरी मात्र 10 फीट थी। वो हमें निहार रहे थे और हम उन्हें। वो तो बेफिक्र होकर अपने जिस्म चाट रहे थे और हमारी रूह काँप रही थी कि कहीं वो हम पर हमला नहीं कर दें। हालाँकि फारेस्ट गार्ड ने आश्वस्त किया कि ऐसा कुछ नहीं होगा।

हम न सिर्फ़ उन्हें आधे घंटे तक एकटक निहारते रहे बल्कि जब वो उठ कर चल दिए तो हम भी धीमी गति से उनका पीछा करते हुए चलते रहे। उन्होंने फिर भी कोई उत्तेजना नहीं दिखाई। कमाल है कि जंगल का सबसे हिंसक पशु भी अपने अनुशासन की सीमा में रहना जानता है और अपने को सभ्य समाज मानने वाले हम कितने हिंसक हैं कि वाणी से, क्रिया से और विचारों से हमेशा अपने समाज व पर्यावरण के प्रति हिंसा करते रहते हैं। चाहे हमारे ये क्रियाएं आत्मघाती ही क्यों न हों।

केन्या के उस सुनसान जंगल में बैठे बैठे सोशल मीडिया पर समाचार मिला कि डोनाल्ड ट्रम्प ने अब इजराइल व ईरान के युद्ध में कूदने का मन बना लिया हैं। उधर यूक्रेन व रूस का युद्ध बरसों से लगातार तबाही मचा ही रहा है और इधर अब ये नया मोर्चा तैयार हो रहा है। क्या ये विश्व युद्ध की ओर बढ़ते कदम नहीं हैं ?

वैसे तो मानव समाज जब से संगठित हुआ होगा तब से युद्ध उसके जीवन का अंग हो गया। इतिहास लाखों युद्धों की गाथाओं से भरा पड़ा है। फिर भी मेरे मन में ये दार्शनिक प्रश्न आ रहा है कि इन युद्धों की शुरुआत करने वाले इतने जंगली क्यों होते हैं? क्या उन्हें नहीं दिखता कि युद्ध की विभीषिका में कितने बच्चे अनाथ हो जाते हैं, महिलायें विधवा हो जाती हैं, बने बनाए घर-मकान, विशाल भवन आदि सब ध्वस्त हो जाते हैं, युद्ध के गोले बारूद से पर्यावरण जहरीला हो जाता है, अर्थव्यवस्थाएं लड़खड़ा जाती हैं, विकास अवरुद्ध हो जाता है और आम जनता तबाह हो जाती हैं।

फिर हर युद्ध के बाद युद्ध विराम होता है और शांति वार्ताएं होती हैं। अगर हर युद्ध की परिणति शांति वार्ता ही होनी थी तो फिर ये सब विध्वंस क्यों किया गया? हुक्मरानों से ये सवाल पूछने वाला कोई नहीं होता। सवाल पूछना तो दूर प्रायः आम जनता तो अपनी तबाही के लिए ज़िम्मेदार नेता की ही मुरीद हो जाती है। युद्ध के उन्माद में उसे मसीहा मान लेती है। जैसा जर्मनी की जनता ने किया। जो हिटलर की आत्महत्या के आख़िर क्षण तक यही मानते रही कि वो उन्हें हर बला से बचा लेगा। एक अहमक के फ़ितूर ने जर्मनी को तबाह कर दिया।

प्रायः हर देश में ऐसी मानसिकता वाले लोगों की कमीं नहीं है जो शस्त्र निर्माता लॉबी व भ्रष्ट, अहंकारी और आत्म मुग्ध, अति महत्वाकांक्षी अपने नेताओं के प्रोपोगैंडा के प्रभाव में आकर अपना अच्छा बुरा देखने की क्षमता ही खो बैठती है। ट्रम्प के समर्थक मतदाताओं का भी अमरीका के चुनाव से पहले यही हाल था।

मैं कभी सैन्य विज्ञान का विद्यार्थी नहीं रहा। इसलिए युद्धों के कारण की सैद्धांतिक व्याख्या करने का दुस्साहस नहीं करूँगा। पर एक संवेदनशील आम नागरिक होने के नाते ये सोचने और पूछने का हक़ तो रखता हूँ कि आख़िर ये युद्ध किसके हित में होते हैं? उस जनता के हित में तो बिल्कुल नहीं होते जिसके ख़ून पसीने की कमाई पर वसूले संयुक्त राष्ट्र संघ आज तक एक भी युद्ध नहीं रोक पाया। क्या कोई पुतिन, ट्रम्प या तालिबानी नेता उसकी सुनने को तैयार नहीं है।

यह फ़िक्र सभी तरफ है कि दुनिया आज अजीब दौर से गुज़र रही है। जहाँ अशांति व असुरक्षा और पर्यावरण का विनाश तेज़ी से बढ़ रहा है व मानवीय संवेदनशीलता उतनी ही तेज़ी से घट रही है। डोनाल्ड ट्रम्प को ही लें। जिनके स्वागत में हमने पलक पाँवड़े बिछाये थे वो अपने देश में घुसे अवैध भारतीयों को हथकड़ी और बेड़ियों में बाँध कर वापिस भेज रहे हैं। जबकि दूसरे देशों के ऐसे लोगों को ससम्मान भेज जा रहा है। ट्रम्प वहाँ रह रहे भारतीयों के वीजा ख़त्म करने के धमकी दे रहे हैं। इससे डर कर कितने सफल युवा अमरीका के अपने सपने को चूर-चूर होते देख घर लौट रहे हैं।

दरअसल ये हुक्मरान आम जनता को चैन से जीने नहीं देना चाहते। उसे हमेशा डरा दबा कर रखना चाहते हैं। इन सबसे तो जंगल का राजा शेर कहीं ज्यादा अमन पसंद है जो अपना पेट भरने के बाद अकारण किसी पर हमला नहीं करता। हम तो उससे कहीं ज़्यादा हिंसक हो चुके हैं। फिर भी ठहर कर सही और ग़लत पर सोचने का समय नहीं है आज हमारे पास।आज जब सूचना क्रांति ने पूरी दुनियाँ के लोगों को इस तरह जोड़ दिया है कि सैकंडों में सूचनाएँ दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँच जाती हैं। तब क्या युद्ध और पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए हर देश की जागरूक जनता सोशल मीडिया पर संगठित होकर ऐसे हुक्मरानों पर दबाव नहीं बना सकती जो इस विनाश के कारण बन रहे हैं?

दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में कई देशों में विरोध के स्वरों को दबाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। पहले ऐसा केवल तानाशाह या सैन्य सरकारों में होता था पर अब कुछ देशों की लोकतांत्रिक सरकारें भी विरोध के स्वरों को दबाने में हिचकती नहीं हैं। इसके दुष्परिणाम न केवल उस देश की जनता को भोगने पड़ते हैं बल्कि वो हुक्मरान भी ज़मीनी सच्चाई से कट जाते हैं और चाटुकारों से घिर कर आत्मघाती कदम उठा लेते हैं जैसा श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लगाकर किया था। बाद में उन्हें चुनावों में जनता का कोप भाजन बनना पड़ा। इसलिए हर लोकतांत्रिक सरकार को विरोध के स्वरों को मुक्त रूप से सामने आने देना चाहिए। इससे उसे अपनी हकीकत जानने  का मौक़ा मिलता है।

विनीत नारायण

वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी। जनसत्ता में रिपोर्टिंग अनुभव के बाद संस्थापक-संपादक, कालचक्र न्यूज। न्यूज चैनलों पूर्व वीडियों पत्रकारिता में विनीत नारायण की भ्रष्टाचार विरोधी पत्रकारिता में वह हवाला कांड उद्घाटित हुआ जिसकी संसद से सुप्रीम कोर्ट सभी तरफ चर्चा हुई। नया इंडिया में नियमित लेखन। साथ ही ब्रज फाउंडेशन से ब्रज क्षेत्र के संरक्षण-संवर्द्धन के विभिन्न समाज सेवी कार्यक्रमों को चलाते हुए। के संरक्षक करता हैं।

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