Wednesday

30-04-2025 Vol 19

प्रधान-आचार्य की एकांगी नसीहत

1 Views

विपक्ष को हर मामले में अपनी प्रधानाचार्यी नसीहत देने वाले ओम बिरला और जगदीप धनखड़ जिस दिन सत्ता पक्ष की करतूतों पर भी क्षुब्ध होना शुरू कर देंगे, हमारे जनतंत्र की सेहत सुधरने लगेगी। मगर मैं आश्वस्त हूं कि वह दिन कभी नहीं आने वाला। सो, राहुल का सहृदयी और निर्व्यलीक संप्रेषण ही अब तक निशाने पर रहा है और आगे भी रहेगा।

इस बुधवार लोकसभा में स्पीकर ओम बिरला को प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी का सदन के भीतर अपनी बहन प्रियंका के प्रति स्नेह का थोड़ा-सा अनौपचारिक प्रदर्शन करना इतना खल गया कि उन्होंने हलके गुस्से से पगा तनाव भरा चेहरा लिए फ़रमान सुनायाः ‘‘सदन में मेरे संज्ञान में ऐसी कई घटनाएं हैं, जब माननीय सदस्यों के आचरण सदन की उच्च परंपराओं-मापदंडों के अनुरूप नहीं है। इस सदन में पिता-पुत्री, मां-बेटी, पति-पत्नी सदस्य रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मेरी नेता प्रतिपक्ष से यह अपेक्षा है कि लोकसभा प्रक्रिया के पालनीय नियम 349 के अनुसार सदन में आचरण करें, जो सदन की मर्यादा और प्रतिष्ठा के अनुरूप रहना चाहिए। मैं पुनः आग्रह करता हूं कि सदन में विशेष रूप से प्रतिपक्ष के नेता से तो यह अपेक्षा की जाती है कि उचित आचरण रखें।’’ यह कहने के फ़ौरन बाद स्पीकर ने राहुल को कुछ कहने का मौक़ा दिए बिना सदन की कार्यवाही दो बजे तक के लिए स्थगित कर दी।

हालांकि बिरला ने यह नहीं कहा कि वे राहुल द्वारा प्रियंका के गाल पकड़ कर अपनी छोटी बहन के प्रति स्नेह ज़ाहिर करने की घटना पर एतराज़ जता रहे हैं, मगर वे दरअसल इसी पर क्षुब्ध थे। यह इस से ज़ाहिर था कि उन्होंने साफ़ कहा कि वे जो कह रहे हैं, वह पिता-पुत्री, मां-बेटी और पति-पत्नी के एक ही समय लोकसभा का सदस्य रहने के संदर्भ में है। यानी बिरला के कहने का अर्थ यह था कि यह कोई पहली बार नहीं है और इस से पहले भी प्रगाढ़ रिश्तों वाले परिवारजन साथ-साथ सदस्य रहे हैं और हैं, मगर उन में से कोई और तो सदन के भीतर इस तरह का अनौपचारिक आचरण नहीं करता है। तो विपक्ष के नेता को तो अपने आचरण की मर्यादा का ध्यान रखना ही चाहिए।

मैं इस नाते लोकसभा अध्यक्ष की बात से पूरी तरह सहमत हूं कि संसद के दोनों सदन आधिकारिक मंच हैं और उन का अपना एक औपचारिक परिवेश है। संसद के सदनों के भीतर अनौपचारिक देहभाषा का दायरा सीमित है। अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए स्पीकर ने सदन के भीतर आचरण के बारे में जिस नियम 349 का हवाला दिया, उस में इस बात का कोई ज़िक्र नहीं है कि सांसदों के बीच परस्पर दैहिक-आचार किस तरह को होना या नहीं होना चाहिए। यह नियम कहता है कि सदन में आते और सदन से जाते वक़्त सदस्यों को अपने स्थान पर ही खड़े-खड़े अध्यक्ष की आसंदी के सामने नतमस्तक होना चाहिए। अपना भाषण ख़त्म होते ही सदन से उठ कर बाहर नहीं जाना चाहिए। टोपी या कैप उतार कर अपने सामने की मेज़ पर नहीं रखनी चाहिए। कोट हाथ में ले कर सदन में प्रवेश नहीं करें। स्पीकर जब बोल रहे हों तो बीच में सदन छोड़ कर न जाएं। अगर संसदीय कार्यवाही में हिस्सेदारी के लिए ज़रूरी न हो तो सदस्य सदन के भीतर अख़बार और पुस्तक नहीं पढ़ेंगे। सदस्य किसी भी हालत में बिल्ले नहीं लगाएंगे, नारेबाज़ी नहीं करेंगे, पर्चे नहीं बांटेंगे, वग़ैरह-वग़ैरह।

संसदीय प्रक्रिया के नियमों में हालांकि कहीं यह नहीं लिखा है कि सदस्य सदन के भीतर आपस में गले मिल सकते हैं या नहीं, गलबहियां डाल सकते हैं या नहीं, एक-दूसरे को धौल जमा सकते हैं या नहीं, किसी के गाल थपथपा सकते हैं या नहीं, अपनी पीठ खुजा सकते हैं या नहीं, चुटकी बजा सकते हैं या नहीं, आंखों से इशारेबाज़ी कर सकते हैं या नहीं और ताल ठोक-ठोक कर बात कर सकते हैं या नहीं। मगर ज़ाहिर है कि सदस्य एक-दूसरे से हाथ तो मिला सकते हैं और अपनी छाती ठोक-ठोक कर एक अकेले के बाक़ी सब पर भारी पड़ने का ऐलान तो कर सकते हैं, मगर किसी के पास जा कर उसे गले लगाने का उपक्रम नहीं कर सकते हैं। मैं नहीं जानता कि दूसरा अगर गले लगने को तैयार हो तो भी बिरला इस क्रिया को संसदीय प्रतिष्ठा के अनुरूप मानेंगे या नहीं? मैं यह भी नहीं जानना चाहता कि अपने दोनों हाथों की उंगलियों को नचा-नचा कर किसी की नकल उतारने की क्रिया को बिरला सदन की मर्यादा का उल्लंघन मानते हैं या नहीं? मुझे तो सिर्फ़ यह मालूम है कि भाई-बहन के निश्छल स्नेह का इज़हार उन्हें बेतरह विचलित कर देता है और वे सीधे कहे बिना यह संकेत देने से अपने को नहीं रोक पाते हैं कि अखिलेश यादव और डिंपल भी तो बतौर पति-पत्नी लोकसभा के सदस्य हैं। वे तो कभी ऐसी निजी अनौपचारिकता का प्रदर्शन सदन में नहीं करते हैं। बिना कहे कह दी गई स्पीकर की इस बात में थोड़ा दम तो है।

भारत, भारत है। भारत पूरब है। भारत पश्चिम नहीं है। भारत में भी कोई नहीं जाता है, लेकिन क्या पश्चिमी देशों की भी किसी संसद में कोई सदस्य शॉर्ट्स या स्नीकर्स पहन कर सदन के भीतर जा सकता है? क्या पश्चिम के किसी संसदीय सदन के भीतर अनौपचारिक शारीरिक हावभावों को ठीक माना जाता है? जवाब नहीं में है। ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में कोई सख्त लिखित ड्रेस कोड तो नहीं है, लेकिन परंपरा के अनुसार सदस्यों से औपचारिक कपड़े ;जैसे सूट और टाई पहनने की अपेक्षा की जाती है। कुछ  सांसदों ने जब बिना टाई लगाए सदन में प्रवेश किया तो उन्हें रोका तो नहीं गया, मगर आमतौर पर इसे ठीक नहीं माना गया। संयुक्त राज्य अमेरिका की संसद में भी कोई आधिकारिक वेशभूषा नहीं है, लेकिन सदस्य आमतौर पर औपचारिक पोशाक-सूट, टाई या महिलाओं के लिए वैसे ही समकक्ष वस्त्र पहनते हैं। हालांकि कोई प्रतिबंध नहीं है, लेकिन जींस या टी-शर्ट जैसे अनौपचारिक कपड़े पहनना असामान्य और अनुचित ही माना जाता है। ऑस्ट्रेलिया की संसद में तो एक ड्रेस कोड है और उस के अपने मानक हैं।

पश्चिमी देशों की संसदों में सदस्यों के बीच अनौपचारिक शारीरिक क्रियाएं, जैसे एक.दूसरे के गले में हाथ डालना, गाल थपथपाना, धौल जमाना, वग़ैरह आमतौर अस्वीकार्य मानी जाती हैं। गलबहियां जैसे हावभाव व्यक्तिगत बातचीत का हिस्सा तो हो सकते हैं, मगर औपचारिक सत्रों के दौरान उन्हें अनुचित और असंसदीय माना जाता है। निजी तौर पर सदस्यों के बीच दोस्ताना व्यवहार पश्चिमी देशों की संसदों के औपचारिक माहौल में भी कहीं नहीं दिखता है।

सो, हमारी लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति अपने-अपने सदनों में आचरण की शुद्धता के प्रति आग्रही हों और नेता-प्रतिपक्ष से उन्हें कुछ अतिरिक्त अपेक्षाएं हों तो मुझे इस में कुछ भी ग़लत नहीं लगता है। मगर आचरण की शुचिता तब कहां चली जाती है, जब दोनों सदनों में सत्ता पक्ष के मुखिया व्यवहार की मर्यादाओं को ठेंगे पर रख लेते हैं? दोनों सदनों में स्पीकर और सभापति ने सत्तापक्ष के सांसदों की तमाम ऊलजुलूल बातों और हरकतों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने में कितनी बार उत्सुकता दिखाई है? ऐसी एक नहीं, कई मिसालें हैं, जब सत्तासीन राजनीतिक दल के सांसदों ने लोकसभा और राज्यसभा में अपने शाब्दिक व्यवहार के पतनाले बहाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। उन में से कितनों के ख़िलाफ़ दस-ग्यारह साल में कोई कार्रवाई हुई? विपक्ष को हर मामले में अपनी प्रधानाचार्यी नसीहत देने वाले ओम बिरला और जगदीप धनखड़ जिस दिन सत्ता पक्ष की करतूतों पर भी क्षुब्ध होना शुरू कर देंगे, हमारे जनतंत्र की सेहत सुधरने लगेगी। मगर मैं आश्वस्त हूं कि वह दिन कभी नहीं आने वाला। सो, राहुल का सहृदयी और निर्व्यलीक संप्रेषण ही अब तक निशाने पर रहा है और आगे भी रहेगा।

पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *