तमाम कोशिशों के गांधी भी बचे हुए हैं, नेहरू भी बचे हुए हैं और इंदिरा भी बची हुई हैं। गांधी तो कालजयी हैं। नेहरू भी अभी पांच सौ साल कहीं नहीं जाने वाले। इंदिरा गांधी को भी अलविदा हुए अभी 41 साल ही हुए हैं। लोग उन्हें भी तीन सौ बरस तो अभी और याद रखेंगे। मगर ये सब जो पिछले 11 साल से मान कर चल रहे हैं कि जब तक सूरज-चांद रहेगा, तब तक इन का नाम रहेगा – संसार तो बहुत दूर की बात है, सत्ता से विदाई के ही एकाध दशक के भीतर-भीतर, व्यक्ति के तौर पर तो, इन का नामलेवा ढूंढे भी नहीं मिलेगा।
यह, नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह को तो छोड़िए, सियासत के नन्हे-मुन्ने राहियों के भी, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से ले कर आज की कांग्रेस और राहुल गांधी तक पर, सरेआम मनमानी टिप्पणियां करने का दौर है। ग्यारह बरस में शिखर-खरबूजों का रंग देख-समझ कर बाकी के तमाम खरबूजों ने भी अपने को उसी रंग में रंग लिया है।
नरेंद्र भाई, नेहरू-इंदिरा पर कुछ कहें, तो मैं समझ सकता हूं। अमित भाई भी अगर इस मामले में अपना इतिहास-ज्ञान बघारें तो भी मैं एतराज़ करने की स्थिति में नहीं हूं। इसलिए कि एक देश के प्रधानमंत्री हैं और दूसरे भारत के गृह मंत्री। दोनों ने इतिहास का अध्ययन भले ही उस तरह न किया हो कि वे अपने को इतिहासवेत्ता कह सकें, मगर दोनों के ही पास ऐसे लवाज़मे की कोई कमी नहीं है, जो उन्हें हर मसले के इतिहास-भूगोल की शोधपरक जानकारी मुहैया करा सकता है। सो, वे दोनों इतिहास की गलियों के बारे में, दूसरों का सिखाया-पढ़ाया ही सही, हमें बताने के हक़दार हैं।
मगर उन का क्या करें, जिन्हें इतिहास का ‘इ’ तक नहीं मालूम। ऐसे नौनिहालों को विधायिका के मंचों पर इतिहासकार-मुद्रा में छलांगे लगाते देख कर आख़िर कोई कब तक अपना धैर्य संभाले रख सकता है? इन नवांकुरों के बनिस्बत अमित भाई कम-से-कम इतनी लोकलाज तो रखते हैं कि संसद में उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि इतिहास मेरा विषय रहा है, मैं इतिहास का विद्यार्थी हूं। उन्होंने अपने को इतिहासकार बताने का दंभ तो नहीं भरा न! नरेंद्र भाई तो उन से भी दस क़दम आगे हैं। पहलगाम हादसे और ऑपरेशन सिंदूर पर हुई बहस का लोकसभा में जवाब देते हुए उन्होंने एक महान इतिहासकार सरीखे आत्मविश्वास का प्रदर्शन कर कांग्रेस की ग़लतियों के ऐतिहासिक पन्नों को अपनी मनचाही स्याही से रंगा ज़रूर, मगर एक बार भी यह नहीं कहा कि इतिहास के ‘इ’ अक्षर का आविष्कार उन्हीं की बदौलत हुआ है।
नेहरू चूंकि नरेंद्र भाई का प्रिय विषय हैं, सो, उन्होंने बीच में एकाध बार पानी पी कर भी नेहरू को कोसना ज़ारी रखा। नेहरू और इंदिरा में उन्हें कुछ भी सकारात्मक आज तक नज़र आया ही नहीं है। उन के हिसाब से भारत आज जितनी भी मुसीबतों का सामना कर रहा है, वे सब नेहरू के बोए बीजों की वज़ह से हैं और ये बीज नेहरू ने किसी गफ़लत या भूल-चूक के कारण नहीं बो दिए थे, जानबूझ कर बोए थे। ‘सेकुलर’ नेहरू जानते थे कि उन के संसार से चले जाने के 50 साल बाद एक ‘हिंदू हृदय सम्राट’ प्रधानमंत्री कार्यालय में उसी कुर्सी पर बैठेगा, जिस पर 17 बरस वे बैठे, सो, पहले दिन से ही उस की नाक में दम करने के कांटों की खेती करने के अलावा नेहरू ने अपने कार्यकाल में और कुछ किया ही नहीं।
अखिल भारत में, विदेशों में बसे भारतवंशियों के बीच और दुनिया के लक्षित देशों के रहनुमाओं तक अपनी बात पहुंचाने का सब से प्रभावी मंच, यानी संसद का आंगन, आप के लिए उपलब्ध हो, अपनी डॉन क्विक्जोटी ख़ुद-एतिमादी से आप हमेशा की तरह लबरेज़ हों और झूठ को सच और सच को झूठ बनाने के कारखाने में पांच दशक से ज़्यादा समय तक काम करने का अनुभव आप के पास हो तो फिर किस की हिमाक़त है कि आप की आंखों में आखें डाल ले? इस मंगलवार की शाम लोकसभा की दीवारों ने यही दृश्य देखा। झूठ की दुनिया जब इस हद तक पसर गई हो तो आख़िर मौला भी सच को कैसे ताबानी दे?
तो सियाचिन की ‘गंजी’ ज़मीन से ले कर सिंधु जल समझौते तक के पन्नों पर कहीं नहीं लिखी पंक्तियां भी इस तरह पढ़-पढ़ कर सुनाने का काम जुलाई के अंतिम हफ़्ते में संसद के दोनों सदनों के भीतर हुआ कि दादुरों की वक्तृत्व कला देख कर असली इतिहासवेत्ता अपने बाल नोचने के अलावा कुछ नहीं कर पाए। संप्रेषण-जगत की भाड़ा-पलटन तो कमर कसे बैठी ही थी। तरह-तरह के नव-विमर्श अख़बारों के पन्नों और टेलीविजन के पर्दों पर धड़ाधड़ आकार लेने लगे। बुधवार की सुबह का सूरज उन किरणों के साथ उगा, जिन्हें पूरी रात पूरे कौशल से तराशा गया था। देश माने-न-माने, उस के गले यह बात उतारने की कोशिशों का अध्याय इस पूरे सप्ताह नए सिरे से लिखा जाता रहा कि नेहरू-इंदिरा नायक नहीं, खलनायक थे और आज की कांग्रेस और उस के नेता राहुल गांधी तो देश-विरोधी हैं, पाकिस्तानपरस्त हैं, चीनपरस्त हैं और सनातन संस्कृति के शत्रु हैं।
विरोधाभास किस के जीवन में नहीं होते? महात्मा गांधी, नेहरू और इंदिरा गांधी की ज़िंदगी के विरोधाभासों को देखने का अपना-अपना नज़रिया हो सकता है। मैं मानता हूं उन सभी का व्यक्तित्व और दर्शन एक अनवरत बनती हुई इकाई था। वे निर्माणाधीन इमारत की तरह थे। ऐसी इमारत, जिस में हर लम्हे कुछ-न-कुछ काम चल रहा हो। इसलिए अगर उन के जीवन में कोई विरोधाभास नज़र आते हों तो उन्हें इसी निग़ह से देखा जाना चाहिए। गांधी-नेहरू-इंदिरा की ज़िंदगी प्रयोगशाला थी। उन्हें प्रतिनायक और आज की दुनिया में अप्रासंगिक साबित करने की उछलकूद से मौजूदा कर्णधारों का आभा-चक्र सुनहरा नहीं होने वाला। वह श्यामल है, श्यामल ही रहेगा।
गांधी-नेहरू-इंदिरा की सियासत किसी-न-किसी तरह महज़ चुनाव भर जीतने के लिए नहीं थी। वे मौजूदा हुक़्मरानों से एकदम उलट सियासत के संवाहक थे। वे सामाजिक सरोकारों की मजबूती के आलमबरदार थे। उन की राजनीति में समाज अनुपस्थित नहीं था। उन की सामाजिक पहलक़दमियों में तो दरअसल राजनीति अनुपस्थित थी। वे हर काम ‘एक अकेला, सब पर भारी’ की दुंदुभि बजा कर अपना सीना ठोकने के लिए नहीं करते थे। वे ‘तुम चंदन, हम पानी’ के भावों से भरे लोग थे। वे ‘तुम दीपक, हम बाती’ के जज़्बातों में पगे लोग थे। वे जीवन-पद्धति थे। आज की तरह एकलवादी और अहंकारी व्यवस्था के पोशक नहीं थे।
इसलिए बावजूद तमाम कोशिशों के गांधी भी बचे हुए हैं, नेहरू भी बचे हुए हैं और इंदिरा भी बची हुई हैं। गांधी तो कालजयी हैं। नेहरू भी अभी पांच सौ साल कहीं नहीं जाने वाले। इंदिरा गांधी को भी अलविदा हुए अभी 41 साल ही हुए हैं। लोग उन्हें भी तीन सौ बरस तो अभी और याद रखेंगे। मगर ये सब जो पिछले 11 साल से मान कर चल रहे हैं कि जब तक सूरज-चांद रहेगा, तब तक इन का नाम रहेगा – संसार तो बहुत दूर की बात है, सत्ता से विदाई के ही एकाध दशक के भीतर-भीतर, व्यक्ति के तौर पर तो, इन का नामलेवा ढूंढे भी नहीं मिलेगा।
नेहरू को हाशिए पर बैठा देना इसलिए आसान नहीं है कि वे आधुनिक भारत के नींव-निर्माता थे। इंदिरा गांधी को किनारे कर देना इसलिए मुश्क़िल है कि वे सशक्त भारत की विश्वकर्मा थीं। आप ही बताइए, आज अपने धन्ना-मित्रों के साथ मिल कर देश की नींव खोखली कर रहे लोगों की नेहरू से कोई तुलना है? आज बात-बात पर हर किसी की घुड़की पर घुटने टेक देने वालों की इंदिरा से क्या हमसरी हो सकती है? सो, बेफ़िक्र रहिए। आंशिक ऊहापोह के बावजूद भारत अंततः उसी का अनुगमन करेगा, जो गांधी-नेहरू-इंदिरा की राह पर चल रहा होगा। हमारे देश की अंतःरचना संकीर्णता, भेदभाव और मैंमैंवाद के अनुसरण की है ही नहीं। इसलिए भारत के स्वस्थ हो कर लौटने की तैयारी आरंभ कीजिए।