राज कुमार गुप्ता के डायरेक्शन में बनी ‘रेड 2’ सात साल पहले, 2018 में आई फिल्म ‘रेड’ की फैमिलियर दुनिया में उन्हीं किरदारों के साथ खेलती वैसी ही एक और कहानी है। …यह फ़िल्म बेशक परिचित दुनिया, कहानी, किरदार, अभिनय और संवाद से बनाई गई हो लेकिन इन सभी मसालों को संतुलित अनुपात और सही आंच में पकाकर निर्देशक राज कुमार ने आख़िरकार एक ज़ायकेदार बिरियानी, बख़ूबी, पका ही ली है।…
सिने-सोहबत
हिंदी फ़िल्मों के दर्शकों में बहुत बड़ी तादाद ऐसे दर्शकों की भी है, जिन्हें फैमिलियर या परिचित दुनिया बेहद पसंद होती है। फिर चाहे वो कहानी के स्तर पर हो या फिर क़िरदार, कलाकार, उनके संवाद और संवादों से दर्शकों में भरने वाला जोश। आज के ‘सिने-सोहबत’ में ताज़ा तरीन फ़िल्म ‘रेड-2’ के बहाने हम दर्शकों के इसी तत्व ‘फैमिलियरिटी’ पर विमर्श करेंगे। कमाल की बात है कि फ़िल्ममेकर्स किस परिपक्वता से दर्शकों की इस टेन्डेन्सी को समझ कर उनकी पसंद की फ़िल्म परोसने की कला में दक्ष हैं और कितने!
राज कुमार गुप्ता के डायरेक्शन में बनी ‘रेड 2’ सात साल पहले, 2018 में आई फिल्म ‘रेड’ की फैमिलियर दुनिया में उन्हीं किरदारों के साथ खेलती वैसी ही एक और कहानी है। ज़ाहिर है दर्शक दोनों फ़िल्मों की तुलना करके फिल्मकार की क़ाबलियत को जज करने का आनंद भी ज़रूर लेंगे और इस प्रक्रिया में उन्हें महसूस होगा कि इस बार डायरेक्टर राज कुमार गुप्ता और अजय देवगन की जुगलबंदी, रितेश देशमुख, वाणी कपूर, अमित सियाल और सौरभ शुक्ला जैसे कलाकरों की मौजूदगी में, एक अच्छी क्राइम थ्रिलर-ड्रामा के साथ मैदान में उसी तरह उतरे हैं जैसे राजस्थान रॉयल्स के लिए खेलने वाले बिहार से नवोदित बल्लेबाज़ वैभव सूर्यवंशी।
इसके पहले भी निर्देशक राज कुमार गुप्ता ने ‘आमिर’, ‘नो वन किल्ड जेसिका’ और ‘घनचक्कर’ जैसी फ़िल्मों से अपनी प्रतिभा को साबित किया है। हालांकि अनजाने में उनसे अपने आलोचकों को भी खुश करने के लिए ‘इंडियाज़ मोस्ट वांटेड’ जैसी फ़िल्म भी बन गई लेकिन ‘रेड-2’ और इसके सात साल पहले ‘रेड’ ने उनके अंदर के फिल्मकार की बाज़ार से बॉन्डिंग को एक नई दिशा दी है, एक नूतन आयाम दिया है।
इस तरह की फिल्मों में कब, क्या और कैसे होगा ये सबको पता होता है, राम जीतेगा-रावण जलेगा ये भी सबको पता होता है, डायलॉग्स भी चिर-परिचित से होते हैं लेकिन जादुई बात ये है कि सिनेमाघरों में दर्शकों को मज़ा बहुत आता है। दर्शक ख़ुद को उस दुनिया से इतना ज़्यादा जुड़ा पाते हैं कि उनके अंदर अपने समय और टिकट में निवेश किये गए पैसे खलते नहीं है। पिछली ‘रेड’ से परिचित दर्शक जानते हैं कि आयकर आयुक्त अमय पटनायक (अजय देवगन) भ्रष्टाचार का काला धंधा करने वालों के लिए इतने डिफ़िकल्ट हैं, जितने की साहित्य के विद्यार्थी के लिए गणित के मुश्किल सवाल। कहानी फिर वहीं से शुरू होती है। अमय अपने खास अंदाज में रात को राजा साहब (गोविंद नामदेव) के यहां रेड मारता है और राजा साहब का कालाधन बरामद करने में कामयाब भी हो जाता है। लेकिन अगले दिन खबर आती है कि अमय ने इस छापे में दो करोड़ की रिश्वत ली है। अमय का फिर से ट्रांसफर कर दिया जाता है। सब कुछ बिलकुल ऑब्वियस। अमय को अब ऐसे इलाके में भेजा जाता
है, जहां कैबिनेट मंत्री दादाभाई (रितेश देशमुख) का राज चलता है। अमय यहां अपनी बेटी और पत्नी (वाणी कपूर) के साथ आ जाता है। गरीबों का मसीहा कहलाने वाला दादाभाई एक परोपकारी फाउंडेशन चलाता है, जहां वह रोजाना अपनी मां (सुप्रिया पाठक) के चरण धोकर अपने दिन की शुरुआत करता है।
मगर भोज में आने के बाद अमय को दादाभाई की इस जरूरत से ज्यादा साफ-सुथरी छवि पर शक होता है। वह दादाभाई की ब्लैक मनी का पता लगाने के लिए इन्वेस्टिगेशन शुरू करता है और उसे पता चल जाता है कि दादाभाई आम लोगों के भगवान के रूप में एक ऐसा शैतान है, जिसने अवैध जमीन और सोने की काला बाजारी ही नहीं, बल्कि कई मासूम लड़कियों का यौन शोषण भी किया है। अब इससे पहले कि अमय, दादाभाई को बेनकाब करता, दादाभाई अपना सारा कालाधन छुपा लेता है और इस बार अमय का तबादला नहीं, बल्कि सस्पेंशन का ऑर्डर आ जाता है। ये ज़रूरी ये नहीं है कि इस फ़िल्म को देखने वाले दर्शक सब कुछ गेस कर ले रहे हैं। ज़रूरी ये है कि फ़िल्मकार ने उन्हें न सिर्फ़ अपनी बनाई दुनिया में बांध लिया, बल्कि उन्हें ‘गेस वर्क’ के काम में उलझा भी लिया है, आनंद भी दे रहा है।
मुझे पूरी तरह यक़ीन है कि निर्देशक राज कुमार गुप्ता इस फ़िल्म के प्रमुख स्क्रिप्टराइटर रितेश शाह के शुक्रगुज़ार होंगे कि उन्होंने कुछ सच्ची घटनाओं को बेस बनाकर एक ऐसी विश्वसनीय दुनिया, कहानी और किरदार बनाए कि बहुत बड़ी तादाद में दर्शकों के दिलों में इस फ्रेंचाइज़ी के लिए जगह बन गई है। फ़िल्म की राइटिंग क्रेडिट में रितेश के अलावा निर्देशक राज कुमार गुप्ता, जयदीप यादव और करण व्यास के नाम भी हैं। हिंदी फ़िल्मों में राइटिंग क्रेडिट्स का ट्रेंड और तरीका बेहद दिलचस्प है, उस पर किसी और आलेख में एक विस्तृत चर्चा की जाएगी।
फ़िल्म की बैक स्टोरी और प्रोटागोनिस्ट अमय पटनायक से दर्शक परिचित हैं। यही वजह है कि ऑडियंस इस किरदार से तुरंत कनेक्ट हो जाती है। इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि बहुत सी दूसरी हिंदी फ़िल्मों की तरह फर्स्ट हाफ़ थोड़ा स्लो लगता है, पर इंटरवल पॉइंट और उसके बाद सेकेंड हाफ़ में कहानी थ्रिल से भर जाती है। अजय देवगन और रितेश देशमुख की परफॉरमेंस ने क्रिकेट की पिच पर सचिन और सहवाग की बैटिंग की तरह कमाल की पार्टनरशिप की याद दिला दी है। 1980 के दशक को पर्दे पर उतारने में राज कुमार गुप्ता बेहद सफल रहे हैं, जहां मोबाइल फोन की दुनिया से दूर लैंडलाइन फोन्स का कल्चर है। छापा मारने के लिए निर्देशक ने उसी पुराने और फैमिलियर टेम्पलेट का इस्तेमाल
किया है, जहां लाइन से सरपट दौड़ती-भागती गाड़ियों का काफ़िला दिखता है।
संगीत की बात करें तो अमित त्रिवेदी का बैकग्राउंड स्कोर कहानी के तनाव को बनाए रखता है। योयो हनी सिंह का गाना, ‘मनी मनी’ बेहद ही औसत है। पुराने गानों जैसे- ‘पैसा ये कैसा’ और ‘तुम्हें दिल्लगी’ को कहानी में खूबसूरत तरीके से मिक्स किया गया है। मज़ा आया। सुधीर के चौधरी की सिनेमैटोग्राफी में ऐसा कुछ नहीं है कि वो अपने क्लोज्ड फ्रेंड्स के बीच ये कहें कि जो भी किया है मैंने किया है। कैमरा वर्क, जस्ट राइट है। संदीप फ्रांसिस की एडिटिंग में और भी स्कोप था, फ़िल्म थोड़ी और टाइट होती, तो बेहतर होता।
अमय पटनायक की भूमिका में अपने सनग्लासेस और स्वैग के साथ अजय देवगन से जितनी उम्मीद थी उन्होंने डिलीवर कर दिया है। उनकी बारीक़ कॉमिक टाइमिंग मजेदार है। वाणी कपूर को अपने रोल में कुछ खास करने को नहीं मिला। हालांकि इस तरह के नायक प्रधान फ़िल्मों की ये एक इन्हेरेंट समस्या है कि इनमें हीरोइन के लिए बहुत कुछ होता नहीं है। फिर मुझे यक़ीन है कि ‘रेड’ की लिखाई में फिल्म के लेखक इस बात का ध्यान रखेंगे कि नायिका को भी कुछ अहम् ट्विस्ट में ज़रूरी पर्पस और एक्शन मिले।
रितेश देशमुख की परफॉर्मेंस का शानदार होना कोई सरप्राइज नहीं है। रितेश हैंडसम दिखने वाले बहुत कम कलाकारों में से हैं जो एक्टिंग भी ज़बरदस्त कर लेते हैं। एक परोपकारी, मातृभक्त, सफेदपोश नेता को उन्होंने अपने स्टाइल में जिया है। आयकर अधिकारी के रूप में अमित सियाल का किरदार खूब आनंद देता है। अमित के अभिनय कौशल में कमाल की विविधता है। उन्होंने टीवी शो ‘महारानी’ से लेकर वेब सीरीज ‘इनसाइड एज’, ‘जामतारा’ और फिल्मों में तिकड़म में अपनी अदाकारी का जो नमूना पेश किया है वो इस बात की पुष्टि करता है कि वो लम्बे रेस के घोड़े हैं। सौरभ शुक्ला ने भी मनोरंजन की दाल में जो तड़का लगाया है वो क़ाबिल ए ग़ौर है। यशपाल शर्मा का छोटा मगर प्रभावशाली किरदार कहानी को नया मोड़ देता है, वो काम सीन्स में भी छाप छोड़ जाते हैं। ठीक उसी तरह बृजेंद्र काला भी अपने अभिनय से अपने किरदार को यादगार बनाते हैं। मां के रोल में सुप्रिया पाठक भी खूब जमी हैं हालांकि उनके किरदार से और बहुत कुछ कराया जा सकता था।
मिलाजुला कर ये फ़िल्म बेशक परिचित दुनिया, कहानी, किरदार, अभिनय और संवाद से बनाई गई हो लेकिन इन सभी मसालों को संतुलित अनुपात और सही आंच में पकाकर निर्देशक राज कुमार ने आख़िरकार एक ज़ायकेदार बिरियानी, बख़ूबी, पका ही ली है। आपके नज़दीकी सिनेमाघर में है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरिज़” के होस्ट हैं।)