Wednesday

30-04-2025 Vol 19

हिंदी में किताबों का बाजार बढ़ा है!

344 Views

हिंदी के प्रकाशक लेखकों को रॉयल्टी देने में आनाकानी करते हैं। हिसाब नहीं देते। बिना कॉन्ट्रैक्ट के किताबें छापते हैं। इसका असर पुस्तक मेले में दिखाई देता है क्योंकि अच्छे लेखक नहीं जुड़ते और गुणवत्ता में कमी दिखाई देती है। जब तक पुस्तकों की खरीद बिक्री में भ्रष्टाचार रहेगा हिंदी का प्रकाशन फल फूल नहीं सकता। हिंदी पट्टी में पुस्तक मेला संस्कृति बढ़ी है पर अच्छी किताबों को पाठकों तक पहुंचना एक चुनौती है।

55वें विश्व पुस्तक मेले पर विशेष

अरविंद कुमार

नई आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण के बाद देश में पिछले तीन दशकों में काफी बदलाव देखने को मिले हैं, इसका असर न केवल भारतीय समाज पर पड़ा, बल्कि संस्कृति पर भी पड़ा है, जिसके कारण देश में पुस्तक संस्कृति भी प्रभावित हुई है। अब ब्लॉग, इंटरनेट, ऑनलाइन पत्रकारिता, सोशल मीडिया तथा रील संस्कृति के उभार के कारण भी पुस्तक संस्कृति पर असर पड़ा है। 2014 के बाद देश में दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के बाद हिंदी पट्टी में धार्मिकता और सांप्रदायिकता के विस्तार का असर भी पठन पाठन पर पड़ा है। अब राष्ट्रवादी सरकार भारतीय ज्ञान परंपरा की तरफ लौटने की बात कर रही है, जिसके कारण हिंदी प्रकाशन में पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियां भी दिखाई देने लगी है। हिंदी के प्रकाशकों ने भी अब हिंदुत्ववादी साहित्य को भी छापने में दिलचस्पी दिखाई है।

एक जमाना था जब विश्व पुस्तक मेले में ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’, जैसी किताबें प्रदर्शित नहीं होती थीं लेकिन अब ऐसी किताबें खुलेआम धड़ल्ले से बिक रही हैं। इतना ही नहीं अब गोडसे, वीर सावरकर, गोलवलकर ही नहीं अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी और स्मृति ईरानी आदि पर किताबें भी हिंदी में काफी प्रकाशित होने लगी हैं, जिसे विश्व पुस्तक मेले में देखा जा सकता है। साथ ही साथ धार्मिक पुस्तकों के स्टॉल भी पहले की तुलना में अधिक दिखाई देने लगे हैं लेकिन यह हिंदी प्रकाशन की एक तस्वीर है। इसकी एक दूसरी तस्वीर भी है, जिसमें हिंदी की प्रगतिशील परंपरा और धर्मनिरपेक्ष परंपरा की किताबें भी छपती हैं और मेले में उन्हें भी देखा जा सकता है।

देश में साक्षरता दर और उच्च शिक्षा में दाखिला दर के बढ़ने से अब हिंदी में पाठकों का एक नया वर्ग भी सामने आया है। हालांकि यह वर्ग टीवी और सोशल मीडिया के प्रभाव में है लेकिन वह हिंदी की तरफ उन्मुख हुआ है। हालांकि उसकी रुचियां पहले की तुलना में बदली हैं। अंग्रेजी में जिस तरह चेतन भगत, देवदत्त पटनायक आदि को पढ़ने की एक उत्सुकता युवा पीढ़ी में देखी गई थी वैसे ही एक युवा पीढ़ी हिंदी की दुनिया में भी विकसित हुई है जो लोकप्रिय साहित्य को पढ़ना चाहती है और यही कारण है कि हिंदी के प्रकाशन जगत में पल्प लिटरेचर का भी प्रकाशन हुआ है। इसी से बेस्ट सेलर लेखकों की एक नई धारा विकसित हुई है। हालांकि इसके पीछे प्रकाशकों के प्रचार तंत्र की रणनीति अधिक है क्योंकि वे इस तरह किताबें अधिक बेच पा रहे हैं। पिछले दस पंद्रह सालों में लिट् फेस्ट हिंदी पट्टी में अधिक होने लगे हैं और उससे भी हिंदी में एक नया पाठक वर्ग विकसित हुआ है। यह अलग बात है कि उसका असर पुस्तक संस्कृति पर पड़ा है।

परंतु हिंदी में अब भी कुछ ऐसे प्रकाशक हैं, जो गंभीर और समकालीन साहित्य भी छाप रहे हैं। राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, नई किताब, ग्रंथ शिल्पी, प्रकाशन संस्थान, संवाद प्रकाशन अनामिका पब्लिशर एवं सेतु प्रकाशन। राजपाल एंड संस ने भी काफी ऐसी किताबें छापी हैं, जिसमें गंभीर साहित्य को पढ़ा जा सकता है। पिछले 20-25 वर्षों में हिंदी की दुनिया में बहुत बड़ी संख्या में युवा लेखक और लेखिकाएं भी सामने आए हैं। इन सारे प्रकाशनों ने अब अपना ध्यान इन पर केंद्रित करना शुरू किया है। इसके अलावा दलित साहित्य और वाम साहित्य भी काफी छपने लगा है।

यह अलग बात है कि अब पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस जैसी संस्था नहीं रही, जिसने एक जमाने में बड़ी संख्या में रूसी और वामपंथी साहित्य को प्रकाशित किया था लेकिन अब भी लेफ्ट वर्ल्ड, गार्गी प्रकाशन, जनचेतना जैसे छोटे प्रकाशकों ने काफी मात्रा में वाम साहित्य को प्रकाशित किया है।

हिंदी की दुनिया में अब समाज विज्ञान की भी काफी किताबें छपने और बिकने लगी हैं। नई पीढ़ी अब समाज विज्ञान की किताबों को हिंदी में पढ़ना चाहती है। एक जमाना था जब समाज विज्ञान की अधिकतर किताबें अंग्रेजी में हुआ करती थीं। लेकिन अब स्थिति बदली है। इतिहास, राजनीति विज्ञान, समाज शास्त्र की किताबें आने लगी हैं लेकिन अंग्रेजी की तुलना में बहुत कम हैं। हिंदी में पत्रकारिता और दलित तथा स्त्री विमर्श की काफी किताबें आई हैं। लेकिन हिंदी के प्रकाशक लेखकों को रॉयल्टी देने में आनाकानी करते हैं। हिसाब नहीं देते। बिना कॉन्ट्रैक्ट के किताबें छापते हैं। इसका असर पुस्तक मेले में दिखाई देता है क्योंकि अच्छे लेखक नहीं जुड़ते और गुणवत्ता में कमी दिखाई देती है। जब तक पुस्तकों की खरीद बिक्री में भ्रष्टाचार रहेगा हिंदी का प्रकाशन फल फूल नहीं सकता। हिंदी पट्टी में पुस्तक मेला संस्कृति बढ़ी है पर अच्छी किताबों को पाठकों तक पहुंचना एक चुनौती है।

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का 55 वां मेला इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि यह 21 वीं सदी के 25 वर्ष गुजरने पर आयोजित हुआ। इन ढाई दशकों में हिंदी की दो नई पीढ़ी सामने आ गई है। साहित्य की दुनिया में बड़ा बदलाव दिख रहा है। कविता कहानी की भाषा और शिल्प में भी बदलाव दिख रहा है तो विषय वस्तु में भी बदलाव नजर आ रहा है। दलित और स्त्री समुदाय से काफी संख्या में लेखक, लेखिकाएं सामने आए हैं और युवा लेखकों की भी फौज आई है। हिंदी के नए प्रकाशकों की संख्या भी बढ़ी है। हिंदी युग्म और रूंख प्रकाशन जैसे नए प्रकाशकों ने युवा वर्ग को आकर्षित किया है। ये नई हिंदी के लेखक हैं, जिनका कंटेंट बीसवीं सदी के लेखकों से अलग है। हिंदी में बाज़ार भी हावी हुआ है, लिट् फेस्ट का चलन बढ़ा है, कॉरपोरेट का प्रवेश हुआ है, इसलिए पारंपरिक साहित्य कम छप रहा है जो आठवें, नौवें दशक तक छपता था। अब नए लेखक नई जीवन शैली की कहानियां लेकर आ रहे हैं। ये आईआईटी, प्रबंधन, मेडिकल की दुनिया की कहानियां हैं, जिसमें प्रेम और ब्रेकअप पहले की तरह नहीं है। अब इन कहानियों की स्त्रियां बेबाक, खुली और आत्मनिर्भर हैं। ये नई स्त्री है।

यह पीढ़ी उदय प्रकाश, अखिलेश और कुमार अम्बुज, देवी प्रसाद के बाद की पीढ़ी है जो इंटरनेट और वेब पत्रिकाओं से निकली है। रेख्ता, कविता कोश, हिंदी समय, हिंदवी, समालोचन, जानकी पुल, सदानीरा जैसे ब्लॉग पढ़ कर निकली है। क्योंकि अब हिंदी की पत्र पत्रिकाओं में साहित्य कम छपता है। प्रकाशकों ने इस परिघटना को ध्यान में रखकर किताबें छपना शुरू किया है। हिंदी में अंग्रेजी के पेंग्विन जैसे प्रकाशकों ने भी काफी किताबें छापना शुरू किया है। अब हिंदी में अमृतलाल नागर, भीष्म साहनी, भगवती चरण वर्मा, यशपाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे बड़े लेखकों के बड़े उपन्यास की परंपरा खत्म हो गई है। हिंदी के प्रकाशक अब भी उपन्यास प्रकाशित करना पसंद करते हैं क्योंकि वह बिकता है। लेकिन पिछले 20 साल में विनोद कुमार शुक्ल, दूधनाथ सिंह, मंजूर एहतेशाम जैसे उपन्यास लिखने वाले लोग नहीं हैं। अब साहित्य में भी फ़ास्ट फ़ूड कल्चर विकसित हुआ है। पेपर बैक किताबों का आवरण और साइज़ भी बदला है। प्रोडक्शन की दृष्टि से किताब पहले से बेहतर निकल रहे हैं लेकिन अधिकतर साहित्य कविता, कहानी उपन्यास तक सीमित है। राजकमल, सेतु, ग्रंथ शिल्पी, गार्गी प्रकाशन, प्रकाशन संस्थान जैसे प्रकाशकों ने विदेशी साहित्य के अनुवाद और समाज विज्ञान की किताबें छापी हैं परंतु  इनकी कीमत बहुत ज्यादा हो गई है।

इससे पता चलता है की हिंदी की दुनिया में किस तरह की पुस्तक संस्कृति विकसित हो रही है। 21वीं सदी के पूर्वार्ध में अब किस तरह की किताबें छप रही हैं, जो पिछली सदी से अलग हैं। हिंदी में अब किस तरह किन किन विषयों की किताबें आ रही हैं, जो पहले नहीं थीं या अब हिंदी का पाठक वर्ग पहले से बदल रहा है। इस पुस्तक मेले में दिखा कि साहित्य की दुनिया में कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, डायरी, यात्रा संस्मरण की किताबें तो छपी रही हैं साथ ही ज्ञान, विज्ञान की भी किताबें काफी छपने लगी हैं। हिंदी के प्रकाशनों के अब दो टारगेट ग्रुप हैं एक तो युवा वर्ग और दूसरा समाज विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी के संसार को विकसित करना। अब हिंदी में रोमिला थापर, चारू गुप्ता जैसे इतिहासकारों की भी किताबें सामने आई हैं तथा कंवल भारती, हितेंद्र पटेल, मणिन्द्र ठाकुर, रामशंकर सिंह, शुभनित कौशिक, अशोक पांडेय जैसे लोगों ने हिंदी में एक नया विमर्श खड़ा किया है। जाहिर है हिंदी का बाज़ार बढ़ा है।

Naya India

Naya India, A Hindi newspaper in India, was first printed on 16th May 2010. The beginning was independent – and produly continues to be- with no allegiance to any political party or corporate house. Started by Hari Shankar Vyas, a pioneering Journalist with more that 30 years experience, NAYA INDIA abides to the core principle of free and nonpartisan Journalism.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *