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भारत में मानवाधिकार की अवधारणा प्राचीन

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वैदिक मतानुसार सभी मनुष्य जन्म से समान हैं और उनमें कोई श्रेष्ठ या निम्न नहीं है, जो आधुनिक मानवाधिकारों के गैर भेदभाव के सिद्धांत का आधार है। सभी मनुष्यों को एक दूसरे के प्रति दयालु और जिम्मेदार होने का उपदेश देता ऋग्वैदिक मंत्र मनुर्भव वर्तमान के मानवाधिकारों का मूल है। यजुर्वेद 36/18का मित्रस्य अर्थात मित्रता और अथर्ववेद 3/30/4 में उल्लिखित अविद्वेषम् अर्थात द्वेष न करना जैसे विचार सभी के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार और सामंजस्य पर जोर देते हैं।

10 दिसंबर- मानवाधिकार दिवस

दुनिया भर में हर वर्ष 10 दिसम्बर को मानव अधिकार दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मानवता की अंतरात्मा को आहत करने वाले बर्बर कृत्यों के जवाब में मानवाधिकारों की पहली वैश्विक घोषणा और अंगीकार किया गया था। इसके अंगीकरण ने मानवाधिकारों को स्वतंत्रता, न्याय और शांति का आधार माना। मानवाधिकार दिवस की औपचारिक स्थापना 4 दिसम्बर 1950 को महासभा की 317वीं पूर्ण बैठक में हुई, जब महासभा ने संकल्प 423 (V) की घोषणा की, जिसमें सभी सदस्य राज्यों और किसी भी अन्य इच्छुक संगठनों को इस दिन को मनाने के लिए आमंत्रित किया गया था। उच्चस्तरीय राजनीतिक सम्मेलनों, बैठकों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और मानवाधिकारों के मुद्दों से संबंधित प्रदर्शनियों के लिए चिह्नित यह दिवस नए संयुक्त राष्ट्र की पहली प्रमुख उपलब्धियों में से एक है।

यह मानवाधिकार शब्द दो शब्दों के योग से बना है -मानव और अधिकार। मानव, मनुष्य, व्यक्ति प्रायः समानार्थी हैं। मानवाधिकार एक सामासिक पद है। मानवानां अधिकार: मानवाधिकार:। भारतीय परंपरानुसार मनु का अपत्य अर्थात मनु की संतान होने के साथ-साथ जिसमें मननशीलता तथा कर्तव्य निष्ठा का सम्यक् सन्निवेश हो, वह मानव कहलाने का अधिकारी है। अधिकार शब्द के सबंध में कहा गया है- अधिक्रियते इति अधिकार:। अर्थात जो अधिकृत हो, वह अधिकार है। अधिकार शब्द अधि उपसर्ग कृ धातु से कर्मार्थक घञ प्रत्यय होने से सिद्ध होता है, जिसका अर्थ होता है- अधीन करना या स्वामित्व होना। इस प्रकार अधिकार शब्द स्वामित्व का बोधक है। अधि उपसर्ग प्रायः अधिकरण अर्थ में प्रयुक्त होता है तथा कृ धातु करने के अर्थ को द्योतित करता है। तथा घञ  प्रत्यय करमार्थक है। इस प्रकार अधिकार शब्द का अर्थ हुआ कर्मीभूत किसी द्रव्य, सता, नियम आदि को अपने में धारण करना। अतः मनुष्य का अधिकार मानवाधिकार है।

अब मानवाधिकार को पश्चिमी देशों की उपज और पूर्णतः एक नवीन अवधारणा के रूप में देखा जाता है, लेकिन भारत के लिए यह कोई नई अवधारणा नहीं है। भारत में मानवाधिकार की अवधारणा अत्यंत प्राचीन है। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेद और संस्कृत के ग्रंथों में मानवाधिकार की अवधारणा का एक व्यापक रूप व चिंतन उपलब्ध होना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यहां सृष्टि के कण- कण में चेतना का स्वरूप मानकर उनसे आत्मवत व्यवहार का प्रतिपादन किया गया है। यद्यपि मानवाधिकार शब्द नवीन है, तथापि सैद्धांतिक रूप से इसकी अवधारणा मानव सभ्यता के आरंभिक काल से ही विद्यमान दिखाई पड़ती है। मनुष्य के सभी उद्वेगों, संवेगों तथा मूल प्रवृतियों  का उल्लेख वेदों में यथास्थान मिलता है।

मानवीय सभ्यता के प्राचीनतम ग्रंथ वेद मानवाधिकार संबंधी प्राचीन सनातन अवधारणा का सम्यक प्रकाशन करते हैं। ऋग, यजु, साम, अथर्ववेद सभी मानवाधिकार का वैदिक स्वरूप विश्व के व्यापक दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत करते हैं। वेदों में मानवाधिकारों की अवधारणा की स्पष्ट झलक मनुर्भव अर्थात मनुष्य बनो, जैसे मंत्रों के माध्यम से व्यक्त होती है। समानता, गरिमा और सभी के प्रति सम्मान के सिद्धांतों में अंतर्सन्निहित दिखाई देती है, जो सभी मनुष्यों के बीच आंतरिक एकता और आपसी रक्षा पर जोर देती है, और जीवन, स्वतंत्रता, और सामाजिक न्याय के मूलभूत अधिकारों, सभी के लिए समान अवसर, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व और शुद्ध हवा आदि प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच का अधिकार का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करती है। वेद में तन, सृधि और जीव अर्थात क्रमशः शरीर, निवास और जीवन की स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए इन्हें धर्म अर्थात कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन अधिकारों और कर्तव्यों को मुख्यतः कर्तव्य अर्थात धर्म माना गया है। इन कर्तव्यों में स्वयं, अपने परिवार, अन्य लोगों, समाज और संपूर्ण विश्व के प्रति कर्तव्य शामिल हैं।

वैदिक मतानुसार सभी मनुष्य जन्म से समान हैं और उनमें कोई श्रेष्ठ या निम्न नहीं है, जो आधुनिक मानवाधिकारों के गैर भेदभाव के सिद्धांत का आधार है। सभी मनुष्यों को एक दूसरे के प्रति दयालु और जिम्मेदार होने का उपदेश देता ऋग्वैदिक मंत्र मनुर्भव वर्तमान के मानवाधिकारों का मूल है। यजुर्वेद 36/18का मित्रस्य अर्थात मित्रता और अथर्ववेद 3/30/4 में उल्लिखित अविद्वेषम् अर्थात द्वेष न करना जैसे विचार सभी के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार और सामंजस्य पर जोर देते हैं। अथर्ववेद 3/30/6 में ईश्वर ने पहिये की अक्ष में आरे के जुड़े होने की भांति आपस में मिलजुल कर परोपकारी सदाचारी विद्वान के नेतृत्व में चलने का आदेश दिया है।

वेदों के अनुसार सभी को साथ मिलकर उन्नति करने का अधिकार है, जिससे समाज में समरसता और एकता बनी रहे। ऋग्वेद के मंत्र शुद्ध वायु और दीर्घायु के महत्व पर प्रकाश डालते हैं, जो जीवन के अधिकार और पर्यावरण के संरक्षण के विचारों को दर्शाते हैं। वेद व्यक्तिगत कल्याण के साथ-साथ सामाजिक कल्याण और सामूहिक जिम्मेदारी पर भी जोर देते हैं, जो मानवाधिकारों के सामूहिकता वाले पहलू को दर्शाता है। वेद समानता, स्वतंत्रता, गरिमा और सार्वभौमिक भलाई के उन मूल सिद्धांतों की नींव रखते हैं, जिन पर आधुनिक मानवाधिकारों की अवधारणा टिकी है। वेदों का यह संदेश न केवल सार्वकालिक है अपितु सार्वभौमिक, सर्वग्राह्य, सर्वहितकारी, सर्वकल्याणकारी भी है।

आदिकाल से चली आ रही है प्राचीन भारतीय संस्कृति में मानवाधिकार की अवधारणा का व्यापक सन्निवेश है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है, जिसमें मानवीय गरिमा के सार्वभौमिक अंतस्तत्त्व संन्निहित हैं। शब्दावली भले ही अलग हैं, लेकिन सार्वभौमिक भाईचारा अर्थात ब्रह्मांडीय बंधुत्व और सभी के लिए समान गरिमा अदि वैदिक विचार आधुनिक मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के सिद्धांतों के समानांतर दृष्टिगोचर होती हैं। धर्म और मानवता एक दूसरे के पूरक हैं। मानवता का धर्म से साक्षात संबंध है। प्राचीन समय में धर्म ही सबका शासक होता था। धर्म को कर्तव्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। समाज में सभी व्यक्ति के एक दूसरे के प्रति कुछ न कुछ कर्तव्य होते हैं। इन कर्तव्यों का निर्धारण वेदादि धर्म शास्त्रों के आधार पर किया जाता था, जिससे अभ्युदय अर्थात लौकिक उत्थान और निःश्रेयस अर्थात पारलौकिक उत्थान की सिद्धि हो, वही धर्म है। इनकी प्राप्ति के लिए वेदादि  शास्त्रों में जिन मार्गों का निर्देशन है, मानवता उनका एक अंग है। यम और नियमों का पालन धर्माचरण का मुख्य आधार है।

समाज मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है। समाजोथ सघर्मिणाम। अर्थात समान धर्मावलंबी लोगों का समूह समाज कहलाता है। मानव समाज अर्थात मानवत्व धर्माविच्छिन्न एक समुदाय विशेष। प्राचीन काल से ही अधिकार और कर्तव्य भारतीय समाज में सामाजिक जीवन के दो आधार स्तंभ माने जाते रहे हैं। इनके अभाव में समाज की कल्पना असंभव सी प्रतीत होती है। समाज का सातत्य अधिकार और कर्तव्यों के संन्निवहन से ही संभव है। सामाजिक जीवन की यह दोनों ही संकल्पनाएं परस्पर संपूरक हैं। इन्हीं के आधार पर समाज की दिशा और दशा निर्धारित होती है। जिस समाज में इनका परिपालन समुचित प्रकार से किया जाता है वह समाज उतना ही समुन्नत होता है। और जहां उनके पालन में अनिश्चितता होती है, वह समाज उतना ही असंतुष्ट और संवेदना विहीन हो जाता है।

मानवाधिकार एक ऐसा अधिकार है, जो जन सामान्य के लिए समान रूप से प्राप्त होता है। इसको ही मौलिक अधिकार कहा जाता है। मानवाधिकार एक ऐसा विषय है, जिसको लेकर आज समस्त जगत अपने अपने तरीके से कार्यरत है। भागीदारी, जवाबदेही, गैर-भेदभाव और समानता, सशक्तिकरण और वैधानिकता रूपी पांच सिद्धांतों के साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा भी मानवाधिकार के मुद्दे पर कार्यरत है। भारत में भी मानवाधिकारों को 28 सितम्बर1993 के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के तहत लागू किया गया है। इस अधिनियम के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना 12 अक्टूबर 1993 को मानवाधिकारों की रक्षा और संवर्द्धन के लिए की गई है।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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