इन दस वर्षों ने सारी आबोहवा को कितना विषैला और कितना शंकित बना दिया है कि पराए के प्राण लेने पर तो सब आमादा हैं ही, अपना भी अगर असहमति के आईने की हलकी-सी झलक दिखा दे तो पत्रकारीय मूल्यों के स्व-नियुक्त कर्णधारों के भीतर का सारा गंदलापन किस तरह बाहर आ जाता है? ‘मोशा’ और इन के दिमाग़ों की इस बुनियादी संरचना में क्या आप को कोई फ़र्क नज़र आता है कि जो हां-में-हां न मिलाए, वह दुश्मन है?
मैं इस प्रसंग का ज़िक्र करना नहीं चाहता था। मगर फिर मुझे लगा कि यह क़िस्सा बयां करना इसलिए ज़रूरी है कि इस से आप को यह अंदाज़ होगा कि देश के कार्यकारी जीवन के हर क्षेत्र में धु्रवीकरण को धारदार बनाने के मक़सद से पिछले एक दशक में हुई उजड्ड कोशिशों ने भारतीय मीडिया के संसार को भी किस दशा में ला पटका है? नरेंद्र भाई मोदी की दुराग्रही शैली ने न सिर्फ़ मीडिया के सकल-तालाब में बेज़ा तरफ़दारी, गहरी नफ़रत, परस्पर दोषारोपी प्रवृत्ति और बीहड़पन का ज़हर घोल डाला है, बल्कि मीडिया-जगत में काम कर रहे एकल-व्यक्तित्वों के भीतरी चरित्र को भी बेतरह बदरंग और तुच्छ बना दिया है।
भारतीय मीडिया का दो धड़ों में स्थूल विभाजन तो 2014 के आम चुनाव के पहले ही हो गया था। यह विभाजन भारतीय जनता पार्टी की हिमायत या मुखा़लिफ़त का नहीं था। यह धड़ेबंदी व्यक्तिपरक थी – मोदी-समर्थक और मोदी-विरोधी। नरेंद्र भाई के रायसीना पर्वत की गद्दी पर काबिज़ होने के बाद इस परिच्छेदन के आसमान में हर सुबह एक नया कालाकलूटा सूरज उगने लगा और हर रात एक नए काले चांद का उदय होने लगा। नरेंद्र भाई ने ऐसा चप्पा-चप्पा चरखा चलाया कि समूची व्यवस्था उन की क़दमबोसी करने लगी। मुख्यधारा के मीडिया ने हुक़ूमत की गहरी जेबों में गोता लगा दिया। नरेंद्र भाई मोदी और उन की परछाई अमित भाई शाह के राजकाज की इस ‘मोशा’-शैली से क्षुब्ध ख़बरनवीसों ने समानांतर मीडिया की राह पकड़ ली।
भारत के यूट्यूब-पटल पर मोदी-सरकार के हर किए-धरे को भव्य-दिव्य बताने वालों की भीड़ के जवाब में नरेंद्र भाई की एक-एक कर्म-रेखा, विचार-बिंदु और देह-भाषा तक को पानी पी-पी कर कोसने वालों का भी जमघट लग गया। दोनों पक्ष अपने को ‘सच का सिपाही’ बताने की दौड़ में लग गए। वे एक-दूसरे के कपड़े उतारने की होड़ में तमाम पत्रकारीय मूल्यों को निर्वस्त्र करने में जुट गए। मोदी-समर्थक और मोदी-समर्थित जमावड़े ने चूंकि तथ्यपरकता को पूरी तरह ठेंगे पर रख कर धारदार हमलावरी रुख अपना रखा था तो मोदी-विरोधी टोली ने भी जवाबी गोले दागने में यथार्थ के प्रति आग्रही होने से किनाराकशी करने में गुरेज़ नहीं किया। इस से सोशल मीडिया के मंचों पर आज अजब-ग़ज़ब धमाचौकड़ी मची हुई है।
नरेंद्र भाई अपने पसंदीदा नर्तक-नर्तकियों के स्ट्रिपटीज़ को तो बढ़ावा दे रहे थे, मगर दस साल से ताक में थे कि इस मुक्ताकाशी मंच पर अपने विरोध में सज रही महफ़िलों के रंग में भंग कैसे डालें। पहलगाम के बहाने मौक़ा मिलते ही उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर टेंटुए मसकने शुरू कर दिए। ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ और ‘सरकार से सवाल करने की हिम्मत’ की कलगी लगा कर कुछ साल से नरेंद्र भाई की पगड़ी उछाल रहे एक यूट्यूब चैनल को सरकार ने पहली फु़र्सत में अपना परीक्षण-गुब्बारा बना लिया। पलक झपकी भी नहीं थी कि चैनल पर पाबंदी लग गई। मैं मानता हूं कि किसी भी चैनल या अख़बार पर, चाहे वह सामान्यतौर पर अस्वीकार्य सनसनी फैलाने में थोड़ा-बहुत लिप्त भी हो, प्रतिबंध लगाना गै़रजनतांत्रिक रवैया है। इस का विरोध होना चाहिए। मगर मैं इस घटना को प्रतीक-प्रसंग मान कर एक निजी अनुभव आप के साथ साझा कर रहा हूं।
चैनल पर पाबंदी लगने के बाद हालांकि मीडिया-जगत में कोई बहुत हो-हल्ला नहीं मचा, लेकिन कुछ पत्रकारों और राजनीतिकों ने इस पर अपना विरोध दर्ज़ कराया। एक्स यानी ट्विटर पर मेरे एक पत्रकार मित्र की पोस्ट पर मैं ने टिप्पणी की कि ‘‘बुरा मत मानिएगा, चैनल बंद करना चाहिए था या नहीं, यह अलग बहस का विषय हो सकता है। मगर जिस चैनल का आप ज़िक्र कर रहे हैं, वह ज़रूरत से ज़्यादा खिलंदड़ा तो होता जा रहा था। मौजूदा सरकार ने 11 साल में जनतंत्र और बुनियादी मानवाधिकार की बहुत-सी मर्यादाओं का गंभीर उल्लंघन किया है। आज के मीडिया का सरकार-समर्थक और सरकार-समर्थित हिस्सा भी पत्रकारिता के हर मूल्य और मर्यादा को सरेआम ठेंगा दिखा रहा है। आप-हम इतने साल से पत्रकारीय दुनिया का हिस्सा हैं, इसलिए सच बताइए कि इधर या उधर की तरफ़दारी की बेलगाम होड़ का कोई ओर-छोर होना चाहिए या नहीं?’’
मेरे इन मित्र ने तो जवाब दिया कि ‘‘आप की बात विचारणीय है। पत्रकारिता का स्तर भी गिरा है और कहीं-कहीं लक्ष्मण-रेखा भी टूटी है।’’ मगर बंद कर दिए गए चैनल के मालिक ने मुझे व्हाट्सऐप संदेश भेज कर लिखा, ‘‘ आपकी इस खुजली का मेरे पास कोई इलाज नहीं है।’’ इस के बाद मेरे और चैनल मालिक के बीच हुए संदेशों के आदान-प्रदान पर भी निग़ाह डाल ही लीजिए।
मैं : सच कड़वा सब को लगता है। सिर्फ़ मोदी को ही नहीं।
वे : ईर्ष्या बहुत बड़ी चीज होती है। हर किसी को मिर्ची लगती है। कई लोगों को देखा है खुद को बड़ा पत्रकार कहते हुए। ना वीडियो चले और ना ही नेतागिरी! सड़क पर घिसटते और दूसरों से जलते लोगों पर तरस ही आता है।
मैं : आप के शब्द स्वयं सब कुछ कह रहे हैं। मुझे तो आज तक आप से मिलने का सौभाग्य ही नहीं मिला। आप से काहे की ईर्ष्या? आप से मेरी क्या होड़? आप की महिमा अपरंपार है। आप की मौजूदा मनोदशा समझ रहा हूं। ऐसे में धैर्य रखिए। शनि महाराज ने आत्मावलोकन के लिए हल्का झटका दिया है। अहंकार त्यागिए। नवंबर में सब ठीक हो जाएगा।
वे : मेरा सारा सही है, क्योंकि मैं हर परिस्थिति में खुश रहता हूँ, जलता नहीं।
मैं : आप से ईर्ष्या की मेरी कहां हैसियत? हां, दूसरों की तरह आप से प्रेरणा ज़रूर नहीं ले सकता।
वे : कोई बात नहीं ऐसे ही काम चलाइए।
मैं : अपना काम तो हनुमान जी चार दशक से भी ज़्यादा से चला ही रहे हैं। आगे भी चलाएंगे। मगर यह जो ‘साहेब’ की तरह सर्वज्ञाता होने का भाव, प्रेरणास्रोत होने की खामख्याली है, आप इस से जितनी जल्दी मुक्ति पा लेंगे, हनुमान जी उतनी ही जल्दी आप के संकट हर लेंगे।
तो समझे आप कि इन दस वर्षों ने सारी आबोहवा को कितना विषैला और कितना शंकित बना दिया है कि पराए के प्राण लेने पर तो सब आमादा हैं ही, अपना भी अगर असहमति के आईने की हलकी-सी झलक दिखा दे तो पत्रकारीय मूल्यों के स्व-नियुक्त कर्णधारों के भीतर का सारा गंदलापन किस तरह बाहर आ जाता है? ‘मोशा’ और इन के दिमाग़ों की इस बुनियादी संरचना में क्या आप को कोई फ़र्क नज़र आता है कि जो हां-में-हां न मिलाए, वह दुश्मन है?
यूट्यूब चैनलों पर सनसनीखेज़ टैम्पलेट-जर्नलिज़्म करने वालों की कबड्डी हो रही है। दोनों पालों में तक़रीबन एक सरीखे चाल-चरित्र-चेहरे वाले खिलाड़ी सांस टूटने तक ‘कबड्डी-कबड्डी-कबड्डी-कबड्डी’ का जाप कर रहे हैं। मैदान की परिसीमा पर बैठे लोग अपनी-अपनी टीम के लिए ताल ठोक रहे हैं। असली प्रश्न अनुत्तरित है कि पतन की स्पर्धा में जीतने की ललक से ज़्यादा ज़रूरी क्या यह नहीं है कि इस चक्कर में हो रहे मूल्य-क्षरण को थामा जाए?
राहुल गांधी की रक्षा के लिए ख़ुद-ब-ख़ुद मंगल पांडे बने घूम रहे जिन उत्साहीलालों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि रावण का जवाब रावण नहीं है, रावण का जवाब राम हैं – उन से कोई क्या कहे? राहुल अपने को नरेंद्र भाई के सांचे में ढाल कर यह युद्ध कभी नहीं जीत सकते हैं। वे जब भी जीतेंगे, इसलिए जीतेंगे कि वे राहुल गांधी हैं। वे इसलिए जीतेंगे कि वे नरेंद्र मोदी नहीं हैं।