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संघ-परिवार: विषकन्या का शिकार

संघ-परिवार

डॉ. अंबेदकर ने देखा था कि “मुसलमानों की माँगें हनुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं”। जिसे पूरा करते जाने के चक्कर में गाँधी ने देश-बँटवारा तक मान लिया।      इस प्रकार, भारत में वोट-बैंक लालसा के पहले शिकार गाँधी थे। जिस से देश की अकूत हानि के सिवा कभी कुछ न मिला। 1919-48 तक की घटनाओं के आकलन से यही निष्कर्ष मिलेगा। उस दौरान अनेक नेताओं, मनीषियों ने गाँधी को चेतावनी दी। पर वे अपने मोह, अहंकार से उबर न सके।अब संघ-भाजपा नेता उसी लालसा और अहंकार में डूब रहे हैं।

जिन लोगों ने ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ की दशकों निन्दा कर-करके अपनी जमीन फैलाई, और अंततः सत्ताधारी बने – वे अब बढ़-चढ़ कर ‘तृप्तिकरण’ कर रहे हैं! इस का दुष्परिणाम क्या उस से भिन्न होगा जो गत सौ वर्षों का इतिहास है?

यह इतिहास कि हिन्दू नेताओं के लिए मुस्लिम समर्थन सदैव छलना रहा। यद्यपि मुस्लिम नेताओं ने सदैव साफ रखा है कि उन के लिए इस्लाम पहले है, देश पीछे। फिर भी उन की चापलूसी में धर्म, न्याय, आत्मसम्मान तक भूल जाना – यही वोट-बैंक विषकन्या की लालसा है।

इस के पहले शिकार मोहनदास करमचंद गाँधी हुए थे। यह 1916-20 ई. की बात है। तुर्की खलीफा की सत्ता बचाने को भारतीय मुस्लिमों ने ‘खलीफत जिहाद’ (एनी बेसेंट के शब्द) किया, जबकि किसी मुस्लिम देश में भी खलीफत आंदोलन नहीं हुआ था। पर उसे गाँधी ने मुस्लिम-समर्थन पाने का मौका समझ लिया। यह अवसरवादी लोभ था।

प्रथम, गाँधी को तुर्क-उस्मान खलीफा की चिन्ता का कोई कारण न था। दूसरे, यहाँ अंग्रेज तभी मौंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार लाये थे जिस से कांग्रेस खुश थी। सो एकाएक ‘असहयोग’ छेड़ना अप्रत्याशित था। गाँधी के दबाव में कांग्रस ने खलीफत आंदोलन में जुड़ी। जिस का भारतीय हित से कोई संबंध न था।

इसीलिए मुस्लिमों को भी कांग्रेस से अपेक्षा न थी। जब गाँधी खलीफत से जुड़े तो, क. मा. मुंशी के अनुसार, अधिकांश कांग्रेसी मानते थे कि गाँधी अनैतिक काम कर रहे हैं “जिस से बड़े पैमाने पर हिंसा होगी और सुशिक्षित हिन्दू-मुस्लिमों की राजनीतिक भागीदारी घटेगी।” जिन्ना ने भी गाँधी को चेताया कि मौलवियों को बढ़ावा न दें। हिन्दू आशंकित थे कि खलीफत से मुस्लिम ताकत बढ़ेगी, जिस से वे अफगानों को न्योत कर भारत पर कब्जा कर सकते हैं। यह खुली चर्चा में था, जिस पर एनी बेसेंट, लाला लाजपत राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्रीअरविन्द आदि मनीषियों ने चिंता प्रकट की थी। खलीफत-समर्थन हर तरह से अनुचित था।

पर गाँधी के लोभ-दबाव में कांग्रेस उस में आ गई। चूँकि वह खलीफा के लिए था, इसलिए उस में इस्लामी आवेश भड़काना ही मुख्य भाषणबाजी थी। जिस में स्वयं गाँधी ने उत्साह से भाग लिया।

किन्तु ‘काफिरों’ के विरुद्ध आवेश उभारने का ही फल था कि जहाँ-तहाँ मुसलमानों ने अपना रोष हिन्दुओं पर उतारा। एक बार ‘जिहाद’ का आवाहन कर देने पर जिहादियों के लिए तो ईसाई और हिन्दू, दोनों काफिर थे। तिस पर मौलाना आजाद सुभानी जैसे कई मुस्लिम नेता अंग्रेजों से बड़ा दुश्मन ‘बाईस करोड़ हिन्दुओं’ को मानते थे।

फिर वही हुआ जो आशंका थी। मुस्लिम नेताओं ने अफगानों को भारत पर हमला करने का न्योता दे दिया। बल्कि, स्वामी श्रद्धानन्द को मौलाना मोहम्मद अली ने बताया कि उस न्योते का मजमून गाँधी ने लिखा था! यह श्रद्धानन्द ने अपने अखबार में भी छापा, जिस का गाँधी ने खंडन नहीं किया। फिर यह तो स्वयं गाँधी ने कहा ही था कि वे अंग्रेजों के विरुद्ध अफगान हमलावरों को भी ‘सहायता’ देने राजी थे (यंग इंडिया, 4 मई 1921)।

बहरहाल, खलीफत आंदोलन में मोपला मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्लेआम, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों का ध्वंस, और वीभत्स अत्याचार किए। यह सब जिहाद भावना से था। सो निन्दा के बदले गाँधी ने कहा कि “मुस्लिम भाइयों ने वह किया जो उन का धर्म उन्हें कहता है”, यानी कुछ गलत नहीं किया!

इसीलिए, खलीफत प्रकरण के बाद देश में गाँधी की प्रतिष्ठा बहुत गिरी थी। यह सब उस लालसा के कारण हुआ जिस ने गाँधी जी को जकड़ लिया था कि उन्हें मुस्लिम भी अपना नेता मानें। गाँधी के परमप्रिय नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि गाँधीजी “वह सब मानने तैयार रहते थे जो मुसलमान माँगें। वह उन्हें जीतना चाहते थे।” खलीफत में कूदना उसी लिए हुआ था।

उस में पिटने के बाद भी गाँधी वही करते रहे। लंदन में गोल-मेज कांफ्रेंस (1931) में कांग्रेस को हिन्दुओं मुसलमानों दोनों का प्रतिनिधि बताने की कोशिश की। वहाँ मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसे तुरत खारिज किया। तब गाँधी ने मुसलमानों को ‘ब्लैंक चेक’ की पेशकश की, ताकि वे गाँधी का नेतृत्व मान लें। जिसे मुस्लिम नेताओं ने हिकारत से ठुकरा दिया।

पर गाँधी अपनी लालसा में डूबे रहे। मुस्लिम नेताओं की ऊल-जुलूल सिर-आँखों उठाते रहे। गुंडे मुस्लिमों से भी प्रेम जताते रहे। स्वामी श्रद्धानन्द जैसे महापुरुष के हत्यारे को अपना ‘भाई’ कहा, जैसे बाद में, 1946  ई. में कलकत्ता में हजारों हिन्दुओं का कत्ल कराने वाले सुहरावर्दी को भी। जबकि लाहौर के महात्मा राजपाल को लांछित किया जिन्होंने हिन्दू धर्म को अपमानित करने वाले एक मुस्लिम प्रकाशन का समुचित उत्तर प्रकाशित किया था। पूरा लाहौर जिन राजपाल को सम्मान देता था, उन के लिए गाँधी ने गंदे विशेषणों का प्रयोग और ‘प्रतिकार’ की माँग करके मुसलमानों को भड़काने का कार्य किया। अंततः एक जिहादी ने राजपाल की हत्या कर दी (1929 ई.)।

ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं जिस में गाँधी जी का दोहरापन, और सिद्धांतहीन मुस्लिमपरस्ती साफ दिखती थी। यदि अपराधी मुस्लिम हो तो गाँधी उसी के पक्ष में ऊल-जलूल दलील देते थे। डॉ. अंबेदकर के अनुसार गाँधीजी ने हिन्दुओं पर मुस्लिमों की किसी हिंसा और अपमान पर ‘कभी एक शब्द न कहा’।

यह कोई महात्मापन नहीं था। वही गाँधी कभी चंद्रशेखर आजाद, चंद्रसिंह गढ़वाली, भगत सिंह, मदनलाल ढींगरा, या ऊधम सिंह जैसे सपूतों को भी भाई नहीं कहते थे। न उन का आदर करते दिखते थे।

यहाँ तक कि गुरू गोविन्द और शिवाजी जैसे ऐतिहासिक महापुरुषों को भी गाँधी ने ‘दिगभ्रमित देशभक्त’ कहने की धृष्टता की! क्योंकि उन्होंने अस्त्र-शस्त्र उठाकर समाज की सेवा की थी। अतः गाँधी उन्हें खारिज करते थे। जबकि वही गाँधी मोपला के जिहादियों और स्वामी श्रद्धानंद को मारने वाले अब्दुल रशीद जैसे धोखेबाज कातिलों को भी अपना ‘भाई’ बताते रहते थे। ऐसी निर्लज्ज सिद्धांतहीनता वही लालसा थी जो आज जिहादी हत्याओं पर चुप रहने वाले संघ-परिवार समेत सभी हिन्दू नेताओं में है।

वह विचित्र लालसा मुस्लिम भी बखूबी समझते हैं। संयोग नहीं कि जिन्ना समेत अनेक मुस्लिम नेताओं का अधिक सहज संबंध पंडित मालवीय या स्वामी श्रद्धानन्द जैसे नेताओं से रहा, जो कृत्रिम बातें न कहकर स्वभाविक हिन्दू विचार रखते थे। जबकि गाँधी को मुस्लिम सदभाव कभी नहीं मिला। हिन्दू जनता को बार-बार बलि चढ़ाने पर भी नहीं। पर वह लालसा गाँधी में बनी रही। खिलाफत से लेकर देश विभाजन, और उस के बाद भी गाँधी उसी भाव से चलते रहे।

जबकि डॉ. अंबेदकर ने देखा था कि “मुसलमानों की माँगें हनुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं”। जिसे पूरा करते जाने के चक्कर में गाँधी ने देश-बँटवारा तक मान लिया। इस तरह, पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल के सिखों-हिन्दुओं के साथ विश्वासघात करने के बाद रामभरोसे छोड़ दिया। कहा कि ‘’खुशी-खुशी जान दे दें और हमला करने वाले मुसलमानों का प्रतिकार न करें।’’

इस प्रकार, भारत में वोट-बैंक लालसा के पहले शिकार गाँधी थे। जिस से देश की अकूत हानि के सिवा कभी कुछ न मिला। 1919-48 तक की घटनाओं के आकलन से यही निष्कर्ष मिलेगा। उस दौरान अनेक नेताओं, मनीषियों ने गाँधी को चेतावनी दी। पर वे अपने मोह, अहंकार से उबर न सके।

अब संघ-भाजपा नेता उसी लालसा और अहंकार में डूब रहे हैं। पहले की तरह, दुष्परिणाम हिन्दू समाज को झेलना पड़ रहा है। कितना भी छिपाएं, जो पहले भी हुआ था, पर यही सचाई है।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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